श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 34 ☆
☆ सबको गले लगाऊं ☆
अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊँ,
अपनों से जो मिला प्यार उसे कर्ज समझूं ,
जो अपनों के लिए किया उसे क्या अपना फ़र्ज़ समझूं ||
जिंदगी तो रुआँसी हो जाती है हर कभी,
दुख दर्द और बेरुखी जो अपनों से मिली,
उसकी शिकायत यहां किसको दर्ज कराऊँ ||
भले ही अपनों से खुशियां मिली हो,
मगर परायों से कोई कम धोखे नहीं खाये,
जब धोखे ही खाने हैं तो क्यों ना अपनों से ही धोखा खाऊं ||
जीवन को शतरंज की बाजी समझूं ,
यहाँ जब बाजी अपनों के साथ ही खेलनी है,
तो हारकर भी क्यों ना अपनों के साथ उनकी जीत का जश्न मनाऊं ||
अगर ऐसा ही है जिंदगी तो तेरी बातों में क्यों आऊं,
लाख अपने नाराज होकर पराये हो जाये,
उनकी बेरुखी को नजरअंदाज कर उनको गले लगाऊं ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर