श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावपूर्ण रचना “मैं श्रमिक हूँ ”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 78 ☆ मैं श्रमिक हूँ ☆
मैं श्रमिक हूं इस धरा पर, कर्म ही पूजा है मेरी।
श्रम की मै करता इबादत, श्रम से है पहचान मेरी।
श्रमेव जयते इस धरा पर, लिख रहा मै नित कहानी
तोड़ता पत्थर का सीना, दौड़ता नहरों में पानी।
काट करके पत्थरों को, राह बीहड़ में बनाता।
स्वश्रम की साधना कर, दशरथ मांझी मैं कहाता ।। मैं श्रमिक हूं।।1।।
श्रम के बल पे बाग में, पुष्प भी मैं ही खिलाता ।
श्रम के बल पे खेत में, फल अन्न भी मैं उगाता।
सड़क भी मैं ही बनाता,बांध भी मैं ही बनाता ।
रत निरंतर कार्य में, मन की सुख शांति मैं पाता।। मैं श्रमिक हूं।।2।।
पेट भरता दूसरों का, मैं सदा भूखा रहा।
छांव दे दी दूसरों को, धूप में जलता रहा।
करके सेवा दूसरों की, फूल सा खिलता रहा।
देखता संतुष्टि सबकी, पुलक मन होता रहा ।। मै श्रमिक हूं।।3।।
श्रम अथक मैंने किया, मोल मैं पाया नहीं ।
रात दिन मेहनत किया, किन्तु पछताया नहीं।
झोपड़ों में दिन बिताता, गरीबी में पलता रहा।
होता रहा शोषण निरंतर, दिल मेरा जलता रहा।
पर जमाने की नजर ना जाने, क्यूं मुझे लग गई।
लुट गई मेरी श्रम की पूंजी, हाथ मैं मलता रहा।। मैं श्रमिक हूं।।4।।
अब बेबसी दुश्वारियां, पहचान मेरी बन गई।
हाथ के खाली कटोरे, मेरी कहानी कह रहे।
बेबसी लाचारी है, भूख है बीमारी है।
मेरी विवशता देख कर, हंसती दुनिया सारी है।
अशिक्षा अज्ञानता की, पांव में बेड़ी पड़ी है।
कोसता हूँ भाग्य को मैं, आज दुर्दिन घड़ी है ।। मैं श्रमिक हूं।।5।।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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