श्री राजकुमार जैन राजन
(आज प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री राजकुमार जैन राजन जी का एक सारगर्भित आलेख ‘अपनी भाषा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं हम’। हम भविष्य में भी ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आपकी विशिष्ट रचनाओं को साझा करने का प्रयास करेंगे।)
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☆ आलेख ☆ अपनी भाषा के खिलाफ खड़े हो रहे हैं हम ☆ श्री राजकुमार जैन राजन ☆
हिंदी की अस्मिता, स्वीकृति और व्यवहारिक प्रतिष्ठा के लिए समय समय पर व्यक्त की जाने वाली चिंता सचमुच हमारे चिंतन का विषय है। हिंदी भाषी प्रदेश हों या अहिन्दी भाषी, सभी जगह अंग्रेजी ने अपनी गिरफ्त मज़बूत कर ली है। एक खास बंदरबांट की भूमिका में अंग्रेजी समस्त भारतीय भाषाओं को परस्पर लड़वा कर एक छत्र शासन करने की मंजिल पर है। वह हमसे हमारी भाषा नहीं हमारी स्वाधीन चेतना, आत्मगौरव व सांस्कृतिक विरासत भी छीनने की तैयारी में है। आज हमारी मानसिक दासता चरम सीमा पर जा पहुंची है क्योंकि हमारी यह समझ तक गायब हो चुकी हैं कि हम अपनी ही भाषा में अपने ही खिलाफ खड़े हो गए हैं।
आज अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखा जाए तो हिंदी अपनी स्थिति मज़बूत बना रही है। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी ही है किंतु हमारे ही देश में स्थिति दयनीय है। हमारी शैक्षणिक संस्थाओं में ऐसे मंदबुद्धि लोग बैठे हैं जो साँस तो हिंदी में लेते हैं, सोचते अंग्रेजी में हैं। खाते हिंदी में हैं, पचाते अंग्रेजी में हैं। वास्तव में हम अपना अधिकार ही खोते जा रहे हैं। संप्रेषण के इस जटिल युग में यदि अपनी भाषा की जड़ें स्वयं ही काटेंगे तो परिणाम विकट ही होंगे। जब हिंदी प्रेमी प्रधानमंत्री माननीय मोदी जी सत्ता में आए तो कुछ आशा बंधी थी कि हिंदी को जल्दी ही राष्ट्र भाषा का दर्ज़ा मिलेगा। पर भारत की राष्ट्रीय शिक्षानीति 2019 के प्रावधानों में हिंदी को ‘अनिवार्य भाषा’ की श्रेणी से ही हटाये जाने का प्रावधान किया है। यह कैसी मानसिकता है ? जो भाषा सहज रूप से प्राणवायु की तरह भारत के जन-जीवन में प्रवाहित है, उसको लेकर आशंकाएं और दुराव क्यों ? साहित्य, मीडिया, व्यवहार, पर्यटन,कॉरपोरेट जगत, व्यापार, नौकरी, प्रतियोगी परीक्षा आदि क्षेत्रों में बार-बार हिंदी को अपनी सामर्थ्य की अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है। जिन लोगों पर इस भाषा की गरिमा कायम रखने की जिम्मेदारी है उनमें से कई दलगत, क्षेत्रगत, स्वार्थगत, राजनीति की रोटियां सेंकने लगते हैं । साहित्यिक व्यक्तियों के लिए भी हिंदी केवल लेखन, प्रकाशन, सम्मान और गोष्ठियों- भाषणों की ही भाषा रह गई है। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो उनके परिवार-परिवार में भी अंग्रेजियत छाई हुई है। हिंदी एक समूह या भाषा भर नहीं है, यह भारत की परिभाषा है।
साइबर दुनिया के बढ़ते प्रभाव एवं कोरोना त्रासदी ने भी हिंदी की बिंदी पौंछने का जबरदस्त काम किया है। कई लोग स्वयम्भू विशेषज्ञ बनकर अपनी मठाधीशी चलाने लगे। कुछ अपवाद छोड़ दें तो ऑनलाइन यू ट्यूब चैनल, व्हाट्सएप्प, फेसबुक व अन्य माध्यमों से हिंदी की दुर्दशा करने में कोई कमी नहीं रखी जा रही है। साहित्यकारों की एक नई जमात यहाँ पैदा हो गई जिसे न व्याकरण का ज्ञान है न भाषा का सौंदर्यबोध ही है। हिंदी भाषा को इस तरह विकृत रूप में प्रस्तुत किये जाने के साथ ही रुपये देकर सम्मानित होने, रचनाएँ प्रकाशित करवाने का ‘व्यवसाय’ भी बड़ी तेजी से फल-फूल रहा है। पत्रिकाओं के संपादक राशि लेकर घोड़े और गधों का समान मूल्यांकन कर रहे है। हिंदी साहित्य जगत में यह स्थिति चिंतनीय है।
हिंदी को देश में राष्ट्र भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कराने हेतु काफी प्रयास की आवश्यकता है तो केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा भी दृढ़ इच्छा शक्ति की दरकार रहेगी। हिंदी को राष्ट्र भाषा कहने पर कुछ लोगों को न जानें क्यों बदहजमी सी होने लगती है। पाखंड और कुतर्क इस समय के विचित्र लक्षण हैं विशेषज्ञ वर्षों से रुदन कर रहे हैं कि हिंदी में उच्च कोटि का वैज्ञानिक चिंतन नहीं है। मनीषी विलापरत हैं कि हिंदी में विश्व स्तर का साहित्य नहीं है। इन सब महान आत्ममुग्धों से भारत के नागरिकों को पूछना चाहिए कि जो नहीं है उसे सम्भव कौन करेगा? आप आगे बढ़कर हिंदी को समृद्ध करने का दायित्व क्यों नहीं उठाते ? क्यों नहीं आप अपनी प्राचीन साहित्यिक विरासत से रूबरू होते ? आज विश्व में हिंदी पढ़ने, लिखने, बोलने वालों की तादात बढ़ रही है, वहीं हिंदी भारत की समस्त बोलियों और क्षेत्रीय भाषाओं की अगुवाई कर रही है, कहीं कमजोरी है तो हम हिंदी वालों में ही है…… ।
© श्री राजकुमार जैन राजन
प्रधान संपादक: ‘सृजन महोत्सव’
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