श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है द्वितीय प्रेमकथा – अनिरुद्ध-ऊषा । )
☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #2– अनिरुद्ध-ऊषा ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
हरिवंश पुराण में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले की एक छोटी सी बस्ती सोहागपुर का उल्लेख श्रोणितपुर नाम से बांणासुर राक्षस की राजधानी के रूप में आता है। महाभारत युद्ध से कृष्ण की स्थापना एक सर्वमान्य आर्य नेतृत्व के रूप में हो गई थी लेकिन कई अनार्य राजा उनसे ईर्ष्यावश द्वेष पाले रखते थे। यादवों का राज्य अरबसागर किनारे स्थित द्वारका से नर्मदा के उत्तरी तट तक फैला हुआ था यानि पूरा गुजरात, मालवा और दक्षिणी बुंदेलखंड का कुछ हिस्सा उनके आधिपत्य में था। असुरराज बांणासुर का राज्य नर्मदा के दक्षिण में श्रोणितपुर राजधानी से पूरे छत्तीसगढ़ तक फैला था। नर्मदा नदी उनके राज्यों की प्राकृतिक विभाजक रेखा थी।
राज्यों की कूटनीति का एक परम सिद्धांत है कि या तो तुम अपने राज्य का पड़ोसी राज्य में विस्तार करो अन्यथा पड़ौसी तुम्हारे राज्य की सीमा पार करके अपने राज्य का विस्तार करेगा। असुरराज बांणासुर के सैनिक आज के नरसिंहपुर, होशंगाबाद और हरदा जिलों से नर्मदा पार करके यादव राज्य में घुसकर आज के सागर, दमोह, रायसेन, सीहोर और देवास जिलों पर हमला करके इलाक़ा अधिग्रहित करने की कोशिश करते रहते थे। कृष्ण ने अपने पौत्र अनिरुद्ध को उस इलाक़े की रक्षा के लिए नियुक्त किया, तभी उसका बांणासुर की पुत्री ऊषा से प्रेम प्रसंग हो गया। अनिरुद्ध राजकुमारी ऊषा से मिलने शोणितपुर तक पहुँच गया। उस समय बांणासुर ने ऊषा के लिए बागड़ा-वन में एक क़िला अग्निगढ़ नाम से बनाया हुआ था। उषा की मायावी सहेली चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को शोणितपुर से अग्निगढ़ क़िले तक पहुँचा दिया। दो प्यासे हृदय एक होकर रसरंग की ख़ुमारी में खो गए। जब बांणासुर को जासूसों ने ख़बर दी तो राक्षसराज ने अनिरुद्ध को बंदी बना लिया। शिव पुराण के पाँचवें भाग युद्ध-खंड में बाणासुर-शोणितपुर कथा का वर्णन आता है। हम इसे आर्य-अनार्य संस्कृति सम्मिलन प्रक्रिया के रूप में देख रहे हैं।
पुराणों के रचनाकार ऋषि-मुनि उस समय के इतिहासकार थे, जिन्होंने कहानी के रूप में सामयिक घटनाओं को रोचक रूप दिया था। उन्होंने अपने साहित्य में कथा को आगे बढ़ाने के लिए वरदान और श्राप नामक दो तरीक़े आदमी के अहंकार को बढ़ाने, फिर अहंकार या अहंकारी को नष्ट्र करने के तरीक़े स्वरूप सुनियोजित रूप से प्रयोग किए हैं ताकि राजा कभी भी अति अहंकारी न हो। अहंकार राजा का अत्यावश्यक गुण है परंतु राजा का अति अहंकार प्रजा को दम्भी बनाता है। पहले अति अहंकारी राजा का विनाश होता है फिर बेलगाम प्रजा आपस में भिड़ने लगती है और राष्ट्र बर्बादी के कगार पर पहुँच जाता है। शिव पुराण में लिखित कृष्ण-बाणासुर संग्राम की पूरी कहानी इस प्रकार है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार दक्ष प्रजापति की तेरह कन्याएँ कश्यप मुनि की पत्नियाँ थीं। उनमें से एक अदिति के गर्भ से इंद्र, अरूण, वरुण, सूर्य इत्यादि देवता उत्पन्न हुए इसीलिए अदिति के एक पुत्र सूर्य का एक नाम आदित्य है। दिति के गर्भ से उत्पन्न पुत्र दैत्य कहलाए। उसके हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष दो पुत्र हुए। हिरण्यकश्यप के चार पुत्र हुए। ह्लाद, अनुह्लाद, संह्लाद और प्रह्लाद। प्रह्लाद आर्यों के प्रधान देव विष्णु का भक्त हुआ और विष्णु के नरसिंह अवतार द्वारा हिरण्यकश्यप के वध का कारण बना। प्रह्लाद का पुत्र राजा विरोचन हुआ जिसने अपना सिर देवताओं के राजा इंद्र को दान में दे दिया था। विरोचन का लड़का राजा बलि हुआ जिसने विष्णु को समस्त पृथ्वी दान कर दी थी। उसी राजा बलि का पुत्र था शोणितपुर का राजा बांणासुर। इस प्रकार आर्य लोग अनार्यों को भक्ति और दान द्वारा उनके लोभ और वैमनस्य पिघला कर अपनी उदार संस्कृति में ढालते जा रहे हैं। अनार्यों के प्रमुख देव शिव है जो कि ऋग्वेद में आर्यों के रूद्र थे। वे हमेशा ख़ुश होकर दैत्यों को वरदान दे देते हैं, परंतु देवताओं को वरदान देते नहीं दिखते हैं। इसका उलट वे आर्य देवों को भस्म करते हैं जैसे कामदेव को शिव ने अनंग कर दिया था। वही कामदेव कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के रूप में अवतरित हुए थे। रति ने भी उनकी पत्नी बनकर जन्म लिया, जिनका पुत्र अनिरुद्ध था। विष्णु उपासक होने से विष्णु ही आर्यों के संकटमोचक थे।
बांणासुर ताण्डव नृत्य द्वारा शिव को प्रसन्न कर त्रिलोकाधिपतियों को बलपूर्वक जीतकर श्रोणितपुर को अपनी राजधानी बना कर राज्य करने लगा। उसने भगवान शंकर को प्रसन्न कर उन्हें अपने नगर का अध्यक्ष बनाकर गणों और पुत्रों सहित निवास करने की विनती की जिसे भगवान शिव ने स्वीकार किया और शोणितपुर में निवास करने लगे।
एक बार उसने तांडव नृत्य कर अपने हजार हाथों से ताली बजा-बजाकर भगवान शंकर को प्रसन्न कर कहा – “हे त्रिपुरारी! पूरे त्रिलोक में मुझे आप जैसा बलशाली योद्धा नहीं मिल रहा। कोई मुझसे अब युद्ध करने को तैयार नहीं है। हे! शंकर मेरी 1000 भुजाएँ फड़क रहीं हैं या तो आपसा योद्धा मुझसे युद्ध करे या आप मेरी भुजाओं को कटवा दें।” भगवान शंकर बाणासुर का दर्प समझ गए। उन्होंने मुस्कुराते हुए उसकी मंशा पूरी होने का वरदान दे दिया। वह भगवान शंकर जैसे योद्धा के साथ युद्ध चाहता था। तदानुसार दैव योजना से बांणासुर की पुत्री उषा एक रात कामातुर हुई। पार्वती ने उसके स्वप्न में प्रद्युम्न पुत्र अनिरुद्ध को भेजकर शमन कराया। उसकी स्वप्न छवि ऊषा के हृदय में बस गई। उसने अपनी सेविका सखी मायावी चित्रकार चित्रलेखा से अनिरुद्ध से मिलाने की विनती की। चित्रलेखा ने अनिरुद्ध को द्वारका से लाकर उषा के महल में छोड़ दिया। बांणासुर के रक्षकों ने यह ख़बर उस तक पहुँचा दी कि कोई देव पुरुष उसकी पुत्री ऊषा का भोग कर रहा है। अनिरुद्ध बंदी बना लिया गया। भगवान शंकर की माया के अनुसार अपने पौत्र अनिरुद्ध को बाणासुर से मुक्त कराने के लिए श्रीकृष्ण को शोणितपुर पर चढ़ाई करनी पड़ी। भगवान शंकर अपने भक्त बाणासुर की तरफ से युद्ध करने के लिए खड़े हुए थे।
शंकर और श्रीकृष्ण में भीषण युद्ध होने लगा तब श्रीकृष्ण शंकर जी के पास जाकर बोले – “हे प्रभु मैं तो आपके ही आदेश से और आपके श्राप से दैत्य की मुक्ति के कारण इस दुष्ट की भुजाएं काटने आया था। आप मुझसे ही भीषण युद्ध कर रहे हैं।” तब भगवान शंकर ने श्री कृष्ण जी को अपने भक्त वत्सल होने का वास्ता देते हुए बताया कि मुझे “जृम्भणास्त्र” से जृम्भित कर अपना अभीष्ट सिद्ध करो। श्रीकृष्ण ने ऐसा ही किया और उसके बाद में उन्होंने बांणासुर की चार भुजाएँ छोड़कर बाक़ी भुजाएं काट डाली, जब सुदर्शन चक्र से सिर काटने लगे तो भगवान शंकर ने उन्हें यह कह कर रोक लिया कि हे मधुसूदन आपने रावण और कंस या किसी भी प्रमुख दैत्यराज का वध चक्र से नहीं किया है। आप चक्र को लौटा लीजिए। दैत्य मेरा परम भक्त है।
सोहागपुर में शंकर मंदिर के सामने एक प्रस्तर भुजा अभी भी पड़ी है जिसे बांणासुर की भुजा बताई जाती है। बांणासुर ने हाथ जोड़कर शिव से एक वरदान माँगा कि ऊषा-अनिरुद्ध से उत्पन्न उसका दौहित्य शोणितपुर पर राज्य करे। उसके बाद शिव कैलाश और कृष्ण द्वारका चले गए। यह कहानी इस तरफ़ संकेत करती है कि आर्य-अनार्य संस्कृतियों का सम्मिलन नर्मदा घाटी में घटित हो रहा था।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
बहुत ही सुंदर कहानी