श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक भावपूर्ण रचना “मरल बेचारा गांव….”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 81 ☆ लोकगीत – लोकगीत – मरल बेचारा गांव…. ☆
घरे के उजरल ओर बड़ेर,
सगरो उजरल गाॅव।
दुअरा के कुलि पेड़ कटि गयल,
ना बचल दुआरें छांव।
खतम हो गइल पोखर ताल ,
सूखि गइल कुअंना गांवे कै।
खतम भयल पनघट राधा के,
बांसुरी मौन भईल मोहन के।।१।।
कउआ गांवै छोडि परइलै ,
गोरिया के सगुन बिचारी के।
सुन्न हो गयल पितर पक्ख,
आवा काग पुकारी के।
झुरा गइल तुलसी कै बिरवा,
अंगना दुअरा के बुहारी के।
लोक परंपरा लुप्त भईल ,
एकर दुख धनिया बनवारी के।।२।।
बाग बगइचा कुलि कटि गइलै,
आल्हा कजरी बिला गयल।
चिरई चहकब खतम भयल,
झुरमुट बंसवारी कै उजरि गयल।
नाहीं बा घिसुआ कै मड़ई,
नाहीं रहल अलाव।
अब नांहीं गांवन में गलियां,
नाहीं रहल ऊ गांव।।३।।
अब नांही बा हुक्का-पानी,
ना गांवन में लोग।
जब से छोरियां गइल सहर में,
ली आइल बा प्रेम का रोग।
जब से गगरी बनल सुराही,
शहर चलल गांवों की ओर।
लोक धुनें सब खतम भइल,
खाली डी जे कै रहि गयल शोर।
अब गावें से खतम भयल बा,
गुड़ शर्बत औ पानी।
अब ठेला पर बिकात हौ,
थम्स अप कोका बोतल में पानी।।४।।
जब-जब सूरू भइल गांवे में,
आधुनिक दिखै के अंधी रेस।
गांव में गोधना मजनूं बनि के,
धइले बा जोकर कै भेष ।
जवने दिन शहर गांव में आइल,
उजरि गइल ममता कै छांव।
सब कुछ खतम भयल गांवें से,
मरल बेचारा प्यारा गांव।।५।।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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