श्रीमति सुजाता काले

साज़ का चमन
(श्रीमति सुजाता काले जी का e-abhivyakti में स्वागत है। प्रस्तुत है पर्यावरण एवं मानवीय संवेदनाओं का बेहद सुंदर शब्द चित्रण।)
शहर शहर उजड़ गए,
बाग में बसर नहीं ।
चारों ओर आग है,
कहीं बची झील नहीं ।उजड़ गए हैं घोंसले,
उजड़े हुए हैं दिन कहीं ।
सफ़र तो खैर शुरू हुआ,
पर कहीं शज़र नहीं ।

मासूम से परिंदों का
अब न वासता कहीं,
कौन जिया कौन मरा,
अब कोई खबर नहीं ।

दुबक गए पहाड़ भी,
लुटी सी है नदी कहीं,
ये कौन चित्रकार है,
जिसने भरे न रंग अभी।

शाम हैं रूकी- रूकी,
दिन है बुझा कहीं,
सहर तो रोज होती है,
रात का पता नहीं ।

मंज़िलों की लाश ये,
कर रही तलाश है,
बेखबर सा हुस्न है,
इश्क से जुदा कहीं ।

जहां बनाया या ख़ुदा,
और तूने जुदा किया,
साँस तो रूकी सी है,
आह है जमीन हुई।

लुट चुका जहां मेरा,
अब कोई खुशी नहीं,
राह तो कफ़न की है,
ये साज़ का चमन नहीं ।

© सुजाता काले ✍…

पंचगनी, महाराष्ट्र
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Ashok Bhambure

बढीया

Sujata Kale

धन्यवाद मान्यवर…

दिलीप पाटील, नाशिक.

सुजाताजी, सुंदर कविता! अभिनंदन!

Sujata Kale

धन्यवाद सर…