सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’
☆ पुस्तक चर्चा ☆ व्यंग्य का रिसर्च पेपर ‘धन्नो, बसंती और बसंत’ और व्यंग्य के वैज्ञानिक विवेक रंजन ☆ सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’ ☆
कोरोना काल में लिखे गए बेहतरीन और प्रभावी व्यंग्य संग्रह में उल्लेखनीय नाम है धन्नो बसंती और बसंत
समकालीन और सक्रिय व्यंग्यकार विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी का व्यंग्य संग्रह प्रभावी और मुखरता की श्रेणी में आता है। विवेक रंजन व्यंग्य को तकनीकी दृष्टि से देखते हैं ।वह व्यंग्य के प्रयोग धर्मी रचनाकार है। व्यंग्य संग्रह का शिर्षक “धन्नो बसंती और बसंत” बेहद आकर्षक और एक्सक्लूसिव है ।इस संग्रह में उन्होंने लगभग हर विषय पर लेखनी गंभीरता से चलाई है। ‘आंकड़े बाजी’ हो या ‘अमीर बनने का सॉफ्टवेयर’ या फिर ‘बजट देश का बनाम घर का’ ‘लो फिर लग गई आचार संहिता’ सभी में वे विसंगतियों पर करारी चोट करते हुए धीरे से चिकुटी काटना भी नहीं भूलते।
‘डॉग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान’, ‘ब्रांडेड वर वधू’, ‘पड़ोसी के कुत्ते’ जैसी छोटी-बड़ी समस्याओं और विषयों को उन्होंने बड़ी ही सहजता और सरलता से व्यंग्य में ढाला है।
परिष्कृत भाषा शैली और विवरणात्मक लेखन इस व्यंग्य संग्रह को उच्च स्तरीय बनाता है।
विवेक जी व्यंग्य के तकनीकी विशेषज्ञ हैं, इसीलिए उनके व्यंग्य संग्रह में बौद्धिक और त्वरित तर्कशक्ति बेहद प्रभावित करती है ।
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की प्रतीक हमारी पत्नी’ में उन्होंने हास्य का पुट भी दिया है। बड़ी ही कुशलता से पत्नी पीड़ित बताकर अंत में पत्नी की तारीफ भी कर दी और उससे देश की समस्या को भी जोड़ दिया यह नवीन प्रयोग है व्यंग्य के क्षेत्र में।
‘ बच्चों आओ बाघ बचाओ’ पाठकों को सोचने पर मजबूर करता है। बच्चों के मासूम और भावुक मन की जरूरत है आम इंसान को। ‘बजट देश बनाम घर का’ में आम नागरिक की पीड़ा नजर आती है। उनके व्यंग्य में कहीं परिस्थिति अनुसार जीने की सीख है, तो कहीं मानवीय गुण को विषय बनाकर जोरदार विसंगति पर प्रहार करना भी वे नहीं भूलते। कहीं वे प्रशासन की खूब खबर लेते नजर आते हैं ,तो कहीं उन्होंने मनुष्य की पीड़ा और दर्द को बखूबी व्यंग्य में ढाला है।
विवेक रंजन जी पाठक के मस्तिष्क को पढ़ लेते हैं ,इसीलिए उनके इस व्यंग्य संग्रह का ताना-बाना ऐसा बना हुआ है जो पाठकों के ह्रदय में गहरे तक पैठ कर सकता है । विवेक जी का वैज्ञानिक दृष्टिकोण व्यंग्य पर गहरा प्रभाव रखता है ।उनके चिंतन मनन की गहनता सामाजिक दृष्टिकोण को उभारती है ,जो इस संग्रह में झलकती है। व्यंग्य विधा आसान विधा नहीं है इसमें सतर्क धैर्यवान और सूक्ष्म दृष्टि के साथ सागर की गहराई सी सोच होना बेहद आवश्यक है। जो विवेक जी के व्यंग्य संग्रह ‘दोनों किडनी रखने की लग्जरी क्यों’ , ‘बिछड़े हुए होने का सुख लो फिर लग गई आचार संहिता’ जैसे व्यंग्य में बखूबी नजर आती है ।इसमें उन्होंने व्यंग्य को तराशकर मांजने का काम किया है। व्यंग्य संग्रह में अधिकतर व्यंग्य के शीर्षक बड़े हैं यह ऐसा है मानो मजमून देखकर लिफाफा भांप लो। बड़े शिर्षक देखते ही पाठक उस विषय को भांपकर पढ़ने को उत्सुक हो उठता है ।यह भी इस व्यंग्य संग्रह का एक प्लस पॉइंट ही है। शिर्षक बड़े रखकर उन्होंने एक अभिनव प्रयोग किया है ।प्रयोग धर्मी व्यंग्यकार की भूमिका में वे साहित्य जगत के उभरते सितारे हैं। व्यंग्य को इस संग्रह में उन्होंने एक उत्तरदायित्व की भूमिका में लिया है। बेहद परिष्कृत चिंतन मनन और शाब्दिक भावों का त्रिवेणी संगम है संग्रह में ।इस में भीगने या तैरने की कुशलता पाठक को आ ही जाती है।
अंत में कहा जा सकता है की व्यंग्य के इस वैज्ञानिक ने संग्रह के साथ उचित न्याय किया है। उन्हें व्यंग का प्रायोगिक रचनाकार (व्यंग्यशास्त्री) कहा जा सकता है।
© सुश्री सुषमा व्यास ‘राजनिधि’
इदौर मध्यप्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈