श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 45 ☆
☆ मौत से रूबरू ☆
वैसे तो मुझे यहां से जाना ना था,
मुझे अभी तो और जीना था,
कुछ मुझे अपनों के काम आना था,
कुछ अभी दुनियादारी को निभाना था,
एक दिन अचानक मौत रूबरू हो गयी,
मैं घबरा गया मुझे उसके साथ जाना ना था,
मौत ने कहा तुझे इस तरह घबराना ना था,
मुझे तुझे अभी साथ ले जाना ना था,
सुनकर जान में जान आ गयी,
मौत बोली तुझे एक सच बतलाना था,
बोली एक बात कहूं तुझसे,
यहाँ ना कोई तेरा अपना था ना ही कोई अपना है,
मैं मौत से घबरा कर बोला,
मैं अपनों के बीच रहता हूँ यहां हर कोई मेरा अपना है,
मैंने मौत से कहा तुझे कुछ गलतफहमी है,
सब मुझे जी-जान से चाहते हैं हर एक यहां मिलकर रहता है,
मौत बोली बहुत गुमान है तुझे अपनों पर,
तेरे साथ तेरा कोई नहीं जायेगा जिन पर तू गुमान करता है,
मैंने भी मौत से कह दिया,
तुझ पर भरोसा नहीं, तुझ संग कभी इक पल भी नहीं गुजारा है,
भले अपने कितने पराये हो जाये,
मुझे इन पर भरोसा है इनके साथ सारा जीवन बिताया है ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर