प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता “एक चित्र की चित्रकार से प्रार्थना“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 44 ☆ एक चित्र की चित्रकार से प्रार्थना ☆
तुम्हारे ही हाथो बनाया गया, तुम्ही से मगर अब भुलाया गया हॅू।
कई साल पहले बना रूप रेखा, मुझे सौ निगाहों से तुमने था देखा।
कभी कुछ हॅंसे थे कभी मुस्कुराये कभी भौं सिकोडी कभी मुॅह था फेरा
मगर फिर मधुर गुनगुनाते हुये चित्र जिसमें कि तुम थे लगे रंग भरने
वही हॅू उपेक्षित सा बिसरा हुआ सा, चपेटो के बीचों दबाया गया हॅू।
सजग कल्पना के चटक रंग कई मिल लगे थे मेरा यह कलेवर सजाने
या जिन जिनने देखा सभी ने कहा था मुझे अपने गृह का सुषोभक बनाने
तुम्हें भी खुषी थी, मगर तूलिका से टपक एक कणिका गई अश्रुकण बन
तभी से मेरा हास्य रोदन बना पर मेै रोया नही हॅू रूलाया गया हॅू।
बनने के पहले ही बिगडा नया और होने के पहले पुराना हुआ जो
उठा शुष्क को आर्द्र कर अश्रुजल से कि जिस तूूलिका ने सजाया है मुझको
उसी की कृपाकर लगाचार कूचे ये आंसू मिटा दो औं मुस्कान भर दो
तुम्हारे ही हाथो है निर्माण मेरा तुम्ही से अधूरा बनाया गया हॅू।
प्रकृति के पटल पर समय धूल से क्यो परिवृत होते दिया त्याग तुमने
हुये रंग फीके मेरे किंतु तब से हुये नित नये किंतु निर्माण कितने
मैं आषा लिये ही पडा सह चुका सब प्रखर ग्रीष्म वर्षा के झोके जकोरे
बनाया है मुझको तो पूरा बना दो मिटाओ न क्योंकि भुलाया गया हॅू।
तुम्हारे ही हाथों है निर्माण मेरा, न जाने कि क्यों यो भुलाया गया हॅू।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈