(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता संतुलन। इस विचारणीय विमर्श के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 115 ☆
कविता – अनुस्वार
चंचला हो
नाक से उच्चारी जाती
मेरी नाक ही तो
हो तुम .
माथे पर सजी तुम्हारी
बिंदी बना देती है
तुम्हें धीर गंभीर .
पंचाक्षरो के
नियमों में बंधी
मेरी गंगा हो तुम
अनुस्वार सी .
लगाकर तुममें डुबकी
पवित्रता का बोध
होता है मुझे .
और
मैं उत्श्रंखल
मूँछ मरोड़ू
ताँक झाँक करता
नाक से कम
ज्यादा मुँह से
बकबक
बोला जाने वाला
ढ़ीठ अनुनासिक सा.
हंसिनी हो तुम
मैं हँसी में
उड़ा दिया गया
काँव काँव करता
कौए सा .
पर तुमने ही
माँ बनकर
मुझे दी है
पुरुषत्व की पूर्णता .
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
वाह वाह बेहतरीन