प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन“। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा # 47 ☆ शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन ☆
शुद्ध तन हो शुद्ध मन हो सदाचारी हों नयन
तो सदा हो शुद्ध जीवन और सब वातावरण
हर बुराई का तो उद्गम मन का सोच विचार है
कर्मों के परिणाम ही उत्थान अथवा हैं पतन
कर्मों से बनता बिगड़ता व्यक्ति का संसार है
किए गए शुभ कर्म ही उन्नति के आधार हैं
क्या उचित अनुचित है इस पर ध्यान होना चाहिए
सबको अपने विचारों पर इतना तो अधिकार है
सुधरता जीवन परस्पर स्नेह मेल मिलाप से
क्या सही है क्या गलत मन बोलता खुद आपसे
वही होना चाहिए जो सबके हित का काम है
जो अहित करता किसी का जलता खुद संताप से
शुद्ध बुद्धि से होते हैं जब काम खुश होता है मन
मन की खुशियों से ही बनता आदमी का स्वस्थ तन
विमल निश्चल आचरण सबको सुखद प्रतिदान है
जिसकी हार्दिक कामना जीवन में करता हरएक जन
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सुंदर भावपूर्ण रचना सर