॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (1-5) ॥ ☆

 

जब विश्वजिति यज्ञ के बाद रघु ने था दान में कोष सकल चुकाया

तब कौत्स वरतन्तु गुरू दक्षिणवार्थी आशा लिये नृपति के पास आया ॥ 1॥

 

विनम्र विख्यात अतिथि परायण जो था बिगत धन सुवर्ण भाजन

ने की सुशिक्षित अतिथि की सेवा दे मृतिका पात्र से अर्ध्य, आसन ॥ 2॥

 

यशोधनी ने तपोधनी की कर मानपूजा यथा प्रथा थी

बिठा कुशासन मैं पास जाके, करबद्ध हो पूंछा – क्यों कृपा की ॥ 3॥

 

कुशल तो है मंत्र कृता ऋषीगण में अग्रचेता गुरू तुम्हारें ?

है बुद्धिवर जिनसे पाया सभी ज्ञान, ज्यों सूर्य से रश्मियाँ पाते सारे ॥ 4॥

 

शरीर मन और वचन से संचित तपस्या जो इंद्र को है डराती

कहीं किन्हीं विघ्नों से विफल हो, कभी कोई कष्ट तो नहीं पाती ? ॥ 5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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