डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय एवं सार्थक आलेख “आज उपेक्षित होते बुजुर्ग”.)
☆ किसलय की कलम से # 54 ☆
☆ आज उपेक्षित होते बुजुर्ग ☆
एक समय था जब बुजुर्गों को वट वृक्ष की संज्ञा दी जाती थी, क्योंकि जिस तरह वटवृक्ष अपनी विशालता और छाया के लिए जाने जाते हैं, उससे कहीं अधिक बुजुर्गों में विशालता और अपने बच्चों को खुशियों रूपी शीतल छाया देने हेतु याद किया जाता था। आज परिस्थितियाँ बदल गई हैं। बच्चे बड़े होते ही अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं। ऊपर से एकल परिवार की व्यवस्थाओं में आजा-आजी की छोड़िए वे अपने माँ-बाप को भी वांछित सम्मान नहीं देते। जिन्होंने अपनी औलाद को जी-जान से चाहकर अपना निवाला भी उन्हें खिलाया वही कृतघ्न संतानें माँ-बाप को बुढ़ापे में घर से दूर वृद्धाश्रम में छोड़ आती हैं। इन माता-पिताओं ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जिन पर उन्होंने अपना सर्वस्व लुटाया वही संतानें उन्हें बेसहारा कर देंगी। ऐसे वाकये और हकीकत जानकर अन्य बुजुर्गों के दिलों पर क्या बीती होगी। आधा खून तो वैसे ही सूख जाता होगा कि कहीं उनकी संतानें भी उन्हें इसी तरह अकेला न छोड़ दें।
लोग शादी करके बच्चे मनोरंजन के लिए पैदा नहीं करते। हमारे धर्म व हमारी परंपराओं के अनुसार अपना उत्तराधिकार, अपनी धन-संपत्ति का अधिकार भी संतानों को स्वतः स्थानांतरित हो जाता है। भारतीय वंश परंपरा की भी यही सबसे बड़ी विशेषता है कि वंश को आगे बढ़ाने वाला ही श्रेष्ठ कहलाता है, अन्यथा उसे निर्वंशी कहा जाता है। आशय यही है कि अपनी संतानों के लालन-पोषण और शादी-ब्याह का पूरा उत्तरदायित्व माँ-बाप का ही होता है, लेकिन जब वही संतान उन्हें दुख देती हैं, उन्हें उपेक्षित छोड़ती हैं तो उनका दुखी होना स्वाभाविक है।
आज के परिवेश में बुजुर्गों की आधुनिक तकनीकि की अनभिज्ञता के चलते संतानें अपने माँ-बाप को पिछड़ेपन की श्रेणी में गिनने लगे हैं, जबकि हमारे यहाँ श्रेष्ठता के मानक भिन्न रहे हैं। भारत में धर्म परायणता, शिष्टाचार, सत्यता, मृदुव्यवहार एवं परोपकारिता जैसे गुणों की बदौलत इंसान को देवतुल्य तक कहा जाता था। क्या नई तकनीकि आपके व्यवहार में उक्त गुण लाती है, कदापि नहीं। ये गुण आते हैं संस्कारों से, अच्छी शिक्षा से, लेकिन आजकल ये सब बातें पुरानी हो गई हैं। अब तो लोगों को मात्र डिग्री चाहिए और डिग्री के बल पर नौकरी। बस इनसे जिंदगी चलने लगती है। भाड़ में जाएँ माँ-बाप। वे तो अपनी बीवी को लेकर महानगरों में चले जाते हैं या फिर विदेश में जाकर बस जाते हैं।
आज जब उनकी संतानें व उनके इक्कीसवीं सदी के उनके पोते-पोतियाँ उनसे बात नहीं करते। उनकी सेवा-शुश्रूषा छोड़िये उनका कहा तक कोई नहीं सुनता, ऊपर से उनकी अपनी संतानें भी उनका ही पक्ष लेती हैं। उनके स्वयं के बेटे उनको मुँह बंद करने पर विवश करते हैं, तब एक अच्छा-भला, अनुभव वाला इंसान उपेक्षित महसूस नहीं करेगा तो और क्या करेगा भी क्या। तब उनके पास केवल दो ही विकल्प बचते हैं। पहला या तो ‘मन मार कर जियो’ या फिर दूसरा ‘कहीं डूब मरो’।
अभी मानवता मरती जा रही है। कल जब वक्त बदलेगा तब इन्हीं वट वृक्षों के तले उन्हें आना पड़ेगा और उनके सदुपदेशों के अनुसार स्वयमेव चलने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। वह दिन भी दूर नहीं है जब इस तथाकथित आधुनिकता और पाश्चात्य संस्कृति का भूत हम भारतीयों के सिर से उतरेगा, तभी भारत की यथार्थ में सुनहरी सुबह होगी।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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