॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #5 (16-20) ॥ ☆

 

हो चक्रवर्ती महाराज भी यज्ञ कर दान दे स्वतः निर्धन उचित हो

जैसे कि सुरपीत कला हीन भी चंद्र पूर्णेन्द से दिखता प्यारा उदित हो ॥ 16॥

 

कोई नहीं कार्य गुरूदक्षिणा हेतु धन प्राप्ति से भिन्न मुझको किसी से

कल्याण हो याचना कभी चातक भी करता नहीं जल रहित बादलों से ॥ 17॥

 

कह ऐसा जाने लगे शिष्य गुरू के, को कुछ रोक रघु ने सहज भाव पूँछा

विद्वान वर ! गुरू को क्या देय है ? – और कितना बतायें तो दें रूपरेखा ॥ 18।

 

तब विश्वजिंत यज्ञ कर भी निरभिमान वर्णाश्रमों के प्रणेता रघु से

वह ब्रह्यचारी सब आशय औं वृतान्त अपना सुनाने लगा इस तरह से ॥ 19॥

 

कर पूर्ण अध्ययन मैंने पूज्य गुरू जी से गुरू दक्षिणा हेतु की प्रार्थना थी

पर उनको मेरी सतत भक्ति निष्ठा ही उनने कहा मेरी गुरू दक्षिणा थी ॥ 20॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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