प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण कविता “बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 49 ☆ बहा ले जाती नदी अपना ही किनारा ☆

अपनों से जा दूर बसने में कई मजबूरियां हैं

समय के संग मन को कई बदलाव देती दूरियां है

कब क्या  बदलाव होगा बता पाना तो कठिन है

पर नए परिवेश में बदलाव की कमजोरियां हैं

 

शुरू में बदलाव तो लगता सभी को है सुहाना

जानता कोई नहीं कल आयेगा कैसा जमाना

खुद के भी बदलाव को कोई समझ पाता कहां है

समय की धारा में मिल बहना जगत ने धर्म माना

 

दूरदर्शी सोच कि संसार में कीमत बड़ी है

क्योंकि नियमित समय से बदलाव की आती घड़ी है

आज जो दिखता जहां है कल कभी मिलता कहां वह

इसलिये नए निर्णयों में उचित नहीं कोई हड़बड़ी है

 

परिस्थितियों साथ नित बनता बिगड़ता विश्व सारा

जरूरी इससे बहुत सद्बुद्धि का शाश्वत सहारा

सदा रहते हरे ऊंचे वृक्ष जिनकी जड़ें गहरी

बहा ले जाती समय की नदी अपना ही किनारा

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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