श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय  साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी  “मैं” की यात्रा का पथिक…4”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…4 ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

“मैं” की यात्रा का पथिक राग-द्वेष का पहला पड़ाव पार करने के बाद दूसरे पड़ाव की यात्रा शुरू करता है। वह स्मृतियों के बियाबान में प्रवेश करता है और पाता है कि जब “मैं” कौशोर्य अवस्था पर था तब उसे बताया गया कि वह रंग, देह, जाति, नस्ल, बुद्धि, सामर्थ और धन में दूसरों से श्रेष्ठ है। वहीं से “मैं” के ऊपर सच्ची झूठी प्रशंसा का लेप चढ़ाया जाने लगा। उसके चारों तरफ़ श्रेष्ठता रूपी ईंटों की दीवार खड़ी कर पलस्तर चढ़ा कर रंग रोगन से पक्का कर दिया। उसका मौलिक स्वरुप उसे ही दिखना बंद हो गया।

“मैं” जब भी दुनिया से मिलता-जुलता, लड़ता-झगड़ता “मैं” के ऊपर का अहंकार भाव का कड़क आवरण न सिर्फ़ उसकी रक्षा करता अपितु जीतने में उसकी भरपूर मदद भी करता। उसे विश्वास होने लगता कि उसका अहंकार ही मौलिक “मैं” है, वह पूरी तरह बदल चुका है। सफलता दर सफलता उसका मन पूरी तरह अहंकार के खोल में पैबंद हो गया है। पथिक की राह में यह दूसरी बड़ी बाधा है।

जब  “मैं” को बचपन में बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, और इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है, तो यहीं से अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव तथा अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड है, और क्रोध उसका उच्छ्वास है।” 

अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा के अंतिम पड़ाव पर अहंकार भाव तिरोहित होना चाहिए, अन्यथा व्यर्थ की बेचैनी पीछा नहीं छोड़ती है।

“मैं” निर्माण से निर्वाण की यात्रा में कई सोपान तय करता है। “मैं” को दुनियादारी से निभाव के लिए समुचित मात्रा में अहंकार की ज़रूरत होती है। एक बार निर्माण पूरा हो गया फिर अहंकार की अनिवार्यता समाप्त हो जाती है। अहंकार की प्रवृत्ति जूझने की है। वह धन, यश, मोह में जकड़ा अपनो के लिए दूसरों से लड़ता है। जब लड़ने को कोई पराया नहीं मिलता तो अपनो से लड़ता है। दुनियावी उपलब्धियों का संघर्ष समाप्त होते ही अहंकार “मैं” को ही प्रताड़ित करने लगता है।   

एक ओर हम राम के विवेकसम्मत परिमित अहंकार को देखते हैं जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम  सकोप तब,  भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ हम रावण के अविवेकी अपरिमित अहंकार को पाते हैं, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। दूसरों से लड़ता उसका अहंकार  स्वयं के नज़दीकी रिश्तेदारों से लड़ने लगता है। फिर उसकी लड़ाई ख़ुद की ज़िद से शुरू होती है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में यश, धन, यौवन, जीवन; सबकुछ हर लेते हैं।’

अहंकार “मैं” के पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर है जो उसे टस से मस नहीं होने देती। कर्ता का अहंकार छोड़े बग़ैर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे नहीं बढ़ सकता।

“आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया, फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढेर लगाना विवेक़ सम्मत है? यदि “मैं” को अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा इत्यादि की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया या आत्म चिंतन द्वारा मन से बाहर निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।”

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
डॉ भावना शुक्ल

शानदार अभिव्यक्ति