श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय साप्ताहिकआलेख श्रृंखला की प्रथम कड़ी “मैं” की यात्रा का पथिक…5”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख – “मैं” की यात्रा का पथिक…5 – मोह ☆ श्री सुरेश पटवा ☆
“मैं” को संसार में बांधे रखने का काम मोह करता है परंतु यह जाने-अनजाने मन का एक विकार भी बन जाता है। जब लगाव गिने-चुने लोगों से होता है, हद में होता है, सीमित होता है, तब मोह सहायक रसों का नियामक होता है। जीवन में रस घोलता है। लेकिन हितों के अटलनीय संघर्ष में मोह घना होकर “मैं” को किंकर्तव्यविमूढ़ करके कर्तव्य पथ से विच्युत करता है।
जीवन के सबसे बड़े संघर्ष में अर्जुन की यही दशा है। अर्जुन ने युद्ध के मैदान में अपने विरोध में खड़े सभी सगे-संबंधियों को देखकर हथियार डाल दिए हैं। उसका मोह ग्रसित “मैं” कर्मपथ पर अग्रसित हो उसे युद्ध नहीं करने दे रहा है। अर्जुन पितामह, गुरु, परिजनों को सामने देख मोहग्रस्त होकर अस्त्र डाल देता है। मूल्यों के संघर्ष में वह कुछ लोगों से सम्बंधों के वशीभूत मोहग्रस्त है। मानवता कल्याण हेतु नए मूल्यों की स्थापना में संघर्ष से हिचकिचाता है। नियत कर्तव्य से पीछा छुड़ाना चाहता है।
जब “मैं” को जीवन का पहला खिलौना मिलता है तब उसमें स्वामित्व का भाव आता है। “मैं” का मेरा निर्मित होता है। यह स्वामित्व भाव ही मोह की प्रथम सीढ़ी है। फिर वह वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थान सभी से मोहग्रस्त होने लगता है। मोह के संस्कार “मैं” के चित्त में इकट्ठा होते रहते है, जिससे इसकी जड़ें पक्की हो जाती हैं और कई बार चाहकर भी वह मोह को नहीं छोड़ पाता। वह मोह को ही प्रेम मान लेता है, जैसे युवक-युवती आपस में आसक्ति को प्रेम कहते हैं, जबकि वह प्रेम नहीं, मोह है।
मां-बाप जब अपने बच्चे को प्रेम करते हैं तो वह भी मोह कहलाता है। मोह का मतलब होता है आसक्ति, जो गिने-चुने उन लोगों या चीजों से होती है जिन्हें हम अपना बनाना चाहते हैं, जिनके पास हम ज्यादा-से-ज्यादा समय गुजारना चाहते हैं। अपना स्वामित्व स्थापित करके उनकी आज़ादी छीनना शुरू कर देते हैं। पति पत्नियों में भी अक्सर ऐसा होता है।
मोह भेद पैदा करता है। मोह वहां होता है जहां हमें सुख मिलने की उम्मीद हो या सुख मिलता हो। वहाँ मैं और मेरे की भावना प्रबल रहती है। एक होता है “लौकिक प्रेम” यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है “अलौकिक प्रेम” यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम साधना कहलाता है। संसारी प्रेम च्युइंग सा चिपकाव है, चबाते रहो तब भी मोह जैसा का तैसा बना रहता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। जबकि ईश्वरीय प्रेम समर्पण द्वारा “मैं” की पूर्ण स्वतंत्रता।
मोह से “मैं” में संग्रह की प्रवृत्ति आती है वही प्रवृत्ति धीरे-धीरे परिग्रह में बदलने लगती है। “मैं” ज़रूरत से अधिक संग्रह के प्रपंच में पड़ने लगता है। इस तरह “मैं” आसक्ति के चक्रव्यूह में फँस जाता है। व्यग्र बेचैन अस्थिर चित्त “मैं” की मोहग्रस्त प्रकृति हो जाती है।
मोह जन्म-मरण का कारण है क्योंकि इसके संस्कार बनते हैं, लेकिन ईश्वरीय प्रेम के संस्कार नहीं बनते बल्कि वह तो चित्त में पड़े संस्कारों के विनाश के लिए होता है। ईश्वरीय प्रेम का अर्थ है मन में सबके लिए एक जैसा भाव। जो सामने आए, उसके लिए भी प्रेम, जिसका ख्याल भीतर आए, उसके लिए भी प्रेम। परमात्मा की बनाई हर वस्तु से एक जैसा प्रेम। जैसे सूर्य सबके लिए एक जैसा प्रकाश देता है, वह भेद नहीं करता। जैसे हवा भेद नहीं करती, नदी भेद नहीं करती, ऐसे ही हम भी भेद न करें। मेरा-तेरा छोड़कर सबके साथ सम भाव में आ जाएं। अपने स्नेह को बढ़ाते जाओ। इतना बढ़ाओ कि सबके लिए एक जैसा भाव भीतर से आने लगे। फिर वह कब ईश्वरीय प्रेम में बदल जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। यही अध्यात्म का गूढ़ रहस्य है।
“मैं” के सामने प्रश्न उठता है कि मोह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़ा है, जैसे स्वयं की देह, देह के दैहिक सुख, मानसिक सुख, बौद्धिक सुख, सम्मान के सुख, धन की कामना के सुख, व्यक्ति और स्थान की चाहत के सुख इत्यादि। क्या इन सारे सुखों में सन्निहित मोह से मुक्त होकर “मैं” की यात्रा का पथिक आगे के पड़ाव पर पहुँच सकता है।
जीवन निर्वाह हेतु इन सभी सुख कारक अवयवों की अनिवार्यता थी। मोह के बग़ैर जीवन सम्भव ही नहीं था। सनातन परम्परा में वानप्रस्थ मोह से निकलने की तैयारी का आश्रम होता है और सन्यास मोह को त्याग देने का।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈