प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 53 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

निगाहों में जो करूणा की सुखद आभा तुम्हारी है

मधुरता ओर कोमलता लिये वह सबसे न्यारी है।।

 

मुझे दिन रात जीवन में कहीं कुछ भी नहीं भाता

तुम्हारी छवि को जबसे मेरे नयनों ने निहारी है।।

 

सलोना और मनभावन तुम्हारा रूप ऐसा है

सरोवर में मुदित अरविन्द-छवि पर भी जो भारी है।।

 

झलक पाने ललक मन की कभी भी कम नहीं होती

बतायें क्या कि उलझे मन को कितनी बेकरारी है।।

 

लगन औ’ चाह दर्शन की निरंतर बढ़ती जाती है

विकलता की सघनता है, विवशता ये हमारी है।।

 

तुम्हारी कृपा की आशा औ’ अभिलाषा लिये यह मन

रंगा है तुम्हारे रॅंग में, औ’ ऑखों में खुमारी है।।

 

सुहानी चाँदनी में जब महकती रात रानी है

गगन में औ’ धरा मैं हर दिशा में खोज जारी है।।

 

उभरते ’चित्र’ मन भाये मनोगत कल्पना में नित

अनेकों रूप रख आती तुम्हारी मूर्ति प्यारी है।।    

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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