डा. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। एक माँ के जज़्बातों को एक माँ ही महसूस कर सकती हैं। डॉ मुक्ता जी की परिकल्पना में निहित माँ -बेटे के स्नेहिल सम्बन्धों और माँ के वात्सल्यमयी अपेक्षाओं को इससे बेहतर लिपिबद्ध करना असंभव है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को नमन ।)
काश!
काश! वह समझ पाता
मां के जज़्बातों को
अहसासों को
मन में बसे प्यार के
अथाह सागर को
उसकी दुआओं को
शुभाशीषों को
वह पल-पल उसकी राह तकती
देर से लौटने तक जगती
उस की सलामती की दुआ करती
क्योंकि वह उसकी
ज़िन्दगी है, धड़कन है।
और वह कितनी
आसानी से कह देता है
‘क्यों जगती रहती हो…
सो जाया करो
व्यर्थ परेशान होती हो’
कहकर पल्ला झाड़ लेता है
और मां क्षुब्ध हो
कर उठती है चीत्कार।
‘क्या कमी रह गई
उसकी परवरिश में
क्यों नहीं दे पाई वह
उसे सुसंस्कार
क्यों ज़माने की
चकाचौंध को देख
उस ओर बढ़ गये
उसके नापाक़ कदम’
उसकी हर इच्छा पर
बलिहारी जाने वाली मां
अब उसे अवगुणों की खान
नज़र आने लगी
क्योंकि बड़ा हो गया है वह
रुतबा है उसका समाज में
लगता है भूल गया है
वह सलीका ज़िन्दगी का
तज मान-मर्यादा
छोटे-बड़े का अंतर
वह ख़ुद को ख़ुदा मानने लगा है
नहीं झलकता अब उसके नेत्रों से
स्नेह-सम्मान व अपनत्व भाव—
और वह सबको
एक लाठी से हांकने लगा है।
© डा. मुक्ता
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
पहले संस्कार मां बाप से मिलते थे अब tv Google u tube social media colleagues से प्राप्त होने के कारण मा बाप के संस्कार दकियानूसी प्रतीत होते हैं। पीढि़यों के बीच का अंतराल भी बढ़ा है और उन्मुक्त पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता आधुनिक पीढ़ी को ज्यादा लुभावनी लगती है। अति सुन्दर सामयिक कविता है।