डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक अत्यंत विचारणीय  एवं सार्थक आलेख “मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग।)

☆ किसलय की कलम से # 59 ☆

☆ मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग ☆

एक समय था जब गाँव या मोहल्ले के एक छोर की गतिविधियाँ अथवा सुख-दुख की बातें दो चार-पलों में ही सबको पता चल जाती थीं। लोग बिना किसी आग्रह के मानवीय दायित्वों का निर्वहन किया करते थे। तीज-त्यौहारों, भले-बुरे समय, पारिवारिक, सामाजिक और धार्मिक आयोजनों में एक परिवार की तरह एक साथ खड़े हो जाते थे।

आज हम पड़ोसियों के नाम व जाति-पाँति तक जानने का प्रयास नहीं करते। मुस्कुराहट के साथ अभिवादन करना तथा हाल-चाल पूछने के बजाय हम नज़रें फेरकर या सिर झुकाये निकल जाते हैं, फिर मोहल्ले वालों की बात तो बहुत दूर की है। उपयोगी व आवश्यक कार्यवश ही लोगों से बातें होती हैं। हम पैसे कमाते हैं और उन्हें पति-पत्नी व बच्चों पर खर्च करते हैं, अर्थात पैसे कमाना और अपने एकल परिवार पर खर्च करना आज की नियति बन गई है। रास्ते में किसका एक्सीडेंट हो गया है। पड़ोसी खुशियाँ मना रहा है अथवा उसके घर पर दुख का माहौल है, आज लोग उनके पास जाने की छोड़िए संबंधित जानकारी लेने तक की आवश्यकता नहीं समझते। आज मात्र यह मानसिकता सबके जेहन में बैठ गई है कि जब पैसे से सब कुछ संभव है तो किसी के सहयोग की उम्मीद से संबंध क्यों बनाये जाएँ। पैसों से हर तरह के कार्यक्रमों की समग्र व्यवस्थाएँ हो जाती हैं। बस आप कार्यक्रम स्थल पर पहुँच जाईये और कार्यक्रम संपन्न कर वापस घर आ जाईये। जिसने हमें बुलाया था, जिनसे हमें काम लेना है, बस उन्हें प्राथमिकता देना है। इन सब में परिवार, पड़ोस और मोहल्ले सबसे पिछले क्रम में होते हैं। जितना हो सके, इन सब से दूरी बनाये रखने का सिद्धांत अपनाया जाता है।

आज हम सभी देखते हैं कि जब कार्ड हमारे घर पर पहुँचते हैं, तब जाकर पता चलता है कि उनके घर पर कोई कार्यक्रम है। यहाँ तक कि जब भीड़ एकत्र होना शुरू होती है तब पता चलता है कि आस-पड़ोस के अमुक घर में किसी सदस्य का देहावसान हो गया है। आज लोग शादी में दूल्हे-दुल्हन को, बर्थडे में बर्थडे-बेबी को महत्त्व न देकर डिनर को ही प्राथमिकता देते हैं।  मृत्यु वाले घर से मुक्तिधाम तक शवयात्रा में शामिल लोग व्यक्तिगत, राजनीतिक वार्तालाप, यहाँ तक कि हँसी-मजाक में भी मशगूल देखे जा सकते हैं, उन्हें ऐसे दुखभरे माहौल से भी कोई फर्क नहीं पड़ता। आजकल अधिकांशतः लोग त्योहारों में घरों से बाहर निकलना पसंद नहीं करते। होली, दीपावली जैसे खुशी-भाईचारा बढ़ाने वाले पर्वों तक से लोग दूरियाँ बनाने लगे हैं।

आज बुजुर्ग पीढ़ी यह सब देखकर हैरान और परेशान हो जाती है। उन्हें अपने पुराने दिन सहज ही याद आ जाते हैं। उन दिनों लोग कितनी आत्मीयता, त्याग और समर्पण के भाव रखते थे। बड़ों के प्रति श्रद्धा और छोटों के प्रति स्नेह देखते ही बनता था। बच्चों को तो अपनों और परायों के बीच बड़े होने पर ही अंतर समझ में आता था। पड़ोसी और मोहल्ले वाले हर सुख-दुख में सहभागी बनते थे। यह बात एकदम प्रत्यक्ष दिखाई देती थी पड़ोसी कि पहले पहुँचते थे और रिश्तेदार बाद में। कहने का तात्पर्य यह है कि आपका पड़ोसी आपके हर सुख-दुख में सबसे पहले आपके पास मदद हेतु खड़ा होता था।

वाकई ये बहुत गंभीर मसले हैं। ये सब अचानक ही नहीं हुआ। इस वातावरण तक पहुँचने का भी एक लंबा इतिहास है। बदलते समय और बदलती जीवन शैली के साथ शनैः शनैः  हम अपने बच्चों और पति-पत्नी के हितार्थ ही सब करने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। संयुक्त परिवार और खून के रिश्तों की अहमियत धीरे-धीरे कम होती जा रही है। लोग संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवार में अपने हिसाब से रहना चाहते हैं। ज्यादा कमाने वाला सदस्य अपनी पूरी कमाई संयुक्त परिवार में न लगाकर अपने एकल परिवार की प्रगति व सुख सुविधाओं में लगाता है। अपनी संतान का सर्वश्रेष्ठ भविष्य बनाना चाहता है। संयुक्त परिवार के सुख-दुख में भी हिसाब लगाकर बराबर हिस्सा ही खर्च करता है। इन सब के पीछे हमारे भोग-विलास और उत्कृष्ट जीवनशैली की बलवती अभिलाषा ही होती है। हम इसे ही अपना उद्देश्य मान बैठे हैं, जबकि मानव जीवन और दुनिया में इससे भी बड़ी चीज है दूसरों के लिए जीना। दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना।

यह भी अहम बात है कि हमने जब किसी की सहायता नहीं की, हमने जब अपने खाने में से किसी भूखे को खाना नहीं खिलाया। हमने जब किसी गरीब की मदद ही नहीं की। और तो और जब इन कार्यो से प्राप्त खुशी को अनुभूत ही नहीं किया तब हम कैसे जानेंगे कि परोपकार से हमें कैसी खुशी और कैसी संतुष्टि प्राप्त होती है। यह भी सच है कि आज जब हम अपने परिजनों के लिए कुछ नहीं करते तब परोपकार से प्राप्त खुशी कैसे जानेंगे। एक बार यह बात बिना मन में लाए कि अगला आदमी सुपात्र है अथवा नहीं, आप  नेक इंसान की तरह अपना कर्त्तव्य निभाते हुए किसी भूखे को खाना खिलाएँ। किसी गरीब की लड़की के विवाह में सहभागी बनें। किसी पैदल चलने वाले को अपने वाहन पर बैठाकर उसके गंतव्य तक छोड़ें। किसी विपत्ति में फँसे व्यक्ति को उसकी परेशानी से उबारिये। बिना आग्रह के किसी जरूरतमंद की सहायता करके देखिए। किसी बीमार को अस्पताल पहुँचाईये। सच में आपको जो खुशी, संतोष और शांति मिलेगी वह आपको पैसे खर्च करने से भी प्राप्त नहीं होगी।

आज विश्व में भौतिकवाद की जड़ें इतनी मजबूत होती जा रही हैं कि हमें उनके पीछे बेतहाशा भागने की लत लग गई है। हम अपने शरीर को थोड़ा भी कष्ट नहीं देना चाहते और यह भूल जाते हैं कि हमारा यही ऐशो-आराम बीमारियों का सबसे बड़ा कारक है। ये बीमारियाँ जब इंसान को घेर लेती हैं तब आपका पैसा पानी की तरह बहता रहता है और बहकर बेकार ही चला जाता है। आप पुनः नीरोग जिंदगी नहीं जी पाते। आप स्वयं ही देखें कि समाज में दो-चार प्रतिशत लोग ही ऐसे होंगे जो पैसों के बल पर नीरोग और चिंता मुक्त होंगे।

हमारी वृद्धावस्था का यही वह समय होता है जब हमारे ही बच्चे, हमारा ही परिवार हमारी उपेक्षा करता है। हमने जिनके लिए अपना सर्वस्व अर्थात ईमान, धर्म और श्रम खपाया वही हमसे दूरी बनाने लगते हैं। यहाँ तक कि हमें जब इनकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है वे हमें वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं।

अब आप ही चिंतन-मनन करें कि यदि आपने अपने विगत जीवन में अपनों से नेह किया होता। पड़ोसियों से मित्रता की होती। कुछ परोपकार किया होता तो इन्हीं में से अधिकांश लोग आपके दुख-दर्द में निश्चित रूप से सहभागी बनते। आपकी कुशल-क्षेम पूछने आते। आपकी परेशानियों में आपका संबल बढ़ाते रहते, जिससे आपका ये शेष जीवन संतुष्टि और शांति के साथ गुजरता।

समय बदलता है। जरूरतें बदलती हैं। बदलाव प्रकृति का नियम है।आपकी नेकी, आपकी भलाई, आपकी निश्छलता की सुखद अनुभूति लोग नहीं भूलते। लोग यथायोग्य आपकी कृतज्ञता ज्ञापित अवश्य करते। आपके पास आकर आपका हौसला और संबल जरूर बढ़ाते।

हम मानते हैं कि आज का युग भागमभाग, अर्थ और स्वार्थ के वशीभूत है। ऐसे में किसी से सकारात्मक रवैया की अपेक्षा करना व्यर्थ ही है। इसलिए क्यों न हम ही आगे बढ़कर भाईचारे और सहृदयता की पहल करें। फिर आप ही देखेंगे कि उनमें  भी कुछ हद तक बदलाव अवश्य आएगा और यदि इस पहल की निरन्तरता बनी रही तो निश्चित रूप से मोहल्ले, पड़ोस से दूरियाँ बनाते लोग दिखाई नही देंगे साथ ही हम पड़ोसियों और मोहल्ले वालों से जुड़कर प्रेम और सद्भावना का वातावरण निर्मित करने में निश्चित रूप से सफल होंगे।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत

संपर्क : 9425325353

ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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विजय तिवारी " किसलय "

आलेख प्रकाशन हेतु आभार आदरणीय अग्रज।
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Hemant Bawankar

एक सार्थक लेख