श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

सामयिकी के अंतर्गत –

? संजय दृष्टि – आलेख – साँस मत लेना ??

दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर हाहाकार मचा हुआ है। पिछले कुछ वर्षों से सामान्यत: अक्टूबर-नवम्बर माह में दिल्ली में प्रदूषण के स्तर पर बवाल उठना, न्यायालय द्वारा कड़े निर्देश देना और राजनीति व नौकरशाही द्वारा लीपापोती कर विषय को अगले साल के लिए ढकेल देना एक प्रथा बनता जा रहा है।

यह खतरनाक प्रथा, विषय के प्रति हमारी अनास्था और लापरवाही का द्योतक है। वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू.एच.ओ) द्वारा दुनिया के 100 देशों के 4000 शहरों का वायु प्रदूषण की दृष्टि से अध्ययन किया गया था। इसके आधार पर दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 15 शहरों की सूची जारी की गई। यह सूची हम भारतीयों को लज्जित करती है। इसमें एक से चौदह तक भारतीय शहर हैं। कानपुर विश्व का सर्वाधिक प्रदूषित शहर है। तत्पश्चात क्रमश: फरीदाबाद, वाराणसी, गया, पटना, दिल्ली, लखनऊ, आगरा, मुजफ्फरनगर, श्रीनगर, गुड़गाँव, जयपुर, पटियाला और जोधपुर का नाम है। अंतिम क्रमांक पर कुवैत का अल-सलेम शहर है।

देश के इन शहरों में (और लगभग इसी मुहाने पर बैठे अन्य शहरों में भी) साँस लेना भी साँसत में डाल रहा है। यह रपट आसन्न खतरे के प्रति सबसे बड़ी चेतावनी है। साथ ही यह भारतीय शासन व्यवस्था, राजनीति, नौकरशाही, पत्रकारिता और नागरिक की स्वार्थपरकता को भी रेखांकित करती है। स्वार्थपरकता भी ऐसी आत्मघाती कि अपनी ही साँसें उखड़ने लग जाएँ।

वस्तुत: श्वास लेना मनुष्य के दैहिक रूप से जीवित होने का मूलभूत लक्षण है। जन्म लेते ही जीव श्वास लेना आरंभ करता है। अंतिम श्वास के बाद उसे मृत या ‘साँसें पूरी हुई’ घोषित किया जाता है। श्वास का महत्व ऐसा कि आदमी ने येन केन प्रकारेण साँसे बनाये, टिकाये रखने के तमाम कृत्रिम वैज्ञानिक साधन बनाये, जुटाये। गंभीर रूप से बीमार को वेंटिलेटर पर लेना आजकल सामान्य प्रक्रिया है। विडंबना है कि वामन कृत्रिम साधन जुटानेवाला मनुष्य अनन्य विराट प्राकृतिक साधनों की शुचिता बनाये रखना भूल गया।

शुद्ध वायु में नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% होती है। शेष 1% में अन्य घटक गैसों का समावेश होता है। वायु के घटकों का नैसर्गिक संतुलन बिगड़ना (‘बिगाड़ना’ अधिक तार्किक होगा) ही वायु प्रदूषण है। कार्बन डाई-ऑक्साइड, कार्बन मोनो-ऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हाइड्रोकार्बन, धूल के कण प्रदूषण बढ़ाने के मुख्य कारक हैं।

वायु प्रदूषण की भयावहता का अनुमान से बात से लगाया जा सकता है कि अकेले दिल्ली में पीएम 10 का औसत 292 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है जो राष्ट्रीय मानक से साढ़े चार गुना अधिक है। इसी तरह पीएम 2.5 का वार्षिक औसत 143 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर भी राष्ट्रीय मानक से तिगुना है।

बिरला ही होगा जो इस आपदा का कारण और निमित्त मनुष्य को न माने। अधिक और अधिक पैदावार की चाहत ने खेतों में रसायन छिड़कवाए। खाद में केमिकल्स के रूप में एक तरह का स्टेरॉइडल ज़हर घोलकर धरती की कोख में उतारा गया। समष्टि की कीमत पर अपने लाभ की संकीर्णता ने उद्योगों का अपशिष्ट सीधे नदी में बहाया। प्रोसेसिंग से निकलनेवाले धुएँ को कम ऊँचाई की चिमनियों से सीधे शहर की नाक में छोड़ दिया।
ओजोन परत को तार-तार कर मानो प्रकृति के संरक्षक आँचल को फाड़ा गया। सेंट्रल एसी में बैठकर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर चर्चा की गई। माटी की परत-दर-परत उघाड़कर खनन किया गया।

पिछले दो दशकों में देश में दुपहिया और चौपहिया वाहनों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इस वृद्धि और वायु प्रदूषण में प्रत्यक्ष अनुपात का संबंध है। जितनी वाहनों की संख्या अधिक, उतनी प्रदूषण की मात्रा अधिक। ग्लोबलाइजेशन के अंधे मोह ने देश को विकसित देशों के ऑब्सेलेट याने अप्रचलित हो चुके उत्पादों और तकनीक की हाट बना दिया। सारा कुछ ग्लोबल न हो सकता था, न हुआ उल्टे लोकल भी निगला जाने लगा। कुल जमा परिस्थिति घातक हो चली। नागासाकी और हिरोशिमा का परिणाम पीढ़ी-दर-पीढ़ी देखने और भोपाल का यूनियन कारबाइड भोगने के बाद भी सुरक्षा की तुलना में व्यापार और विस्तार के लिए दुनिया को परमाणु बम और सक्रिय रेडियोेधर्मिता की पूतना-सी गोद में बिठा दिया गया।

कहा जाता है कि प्रकृति में जो नि:शुल्क है, वही अमूल्य है। वायु की इसी सहज उपलब्धता ने मनुष्य को बौरा दिया। प्रकृति की व्यवस्था में कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर उसके बदले ऑक्सीजन देने का संजीवनी साधन हैं वृक्ष। यह एक तरह से मृत्यु के अभिशाप को हर कर जीवन का वरदान देने का मृत्युंजयी रूप हैं वृक्ष। ऑक्सीजन को यूँ ही प्राणवायु नहीं कहा गया है। पंचवट का महत्व भी यूँ ही प्रतिपादित नहीं किया गया। बरगद से वट-सावित्री की पूजा को जोड़ना, पीपल को देववृक्ष मानना विचारपूर्वक लिये गये निर्णय थे। वृक्ष को मन्नत के धागे बाँधने का मखौल उड़ानेवाले उन धागों के बल पर वृक्ष के अक्षय रहनेे की मन्नत पूरी होती देख नहीं पाये।

फलत: जंगल को काँक्रीट के जंगल में बदलने की प्रक्रिया में वृक्षों पर ऑटोमेटेड हथियारों से हमला कर दिया गया। औद्योगीकरण हो, सौंदर्यीकरण या सड़क का चौड़ीकरण, वृक्षों की बलि को सर्वमान्य विधान बना दिया गया। वृक्ष इको-सिस्टिम का एक स्तंभ होता है। अनगिनत कीट उसकी शाखाओं पर, कुछ कीड़े-मकोड़े-सरीसृप-पाखी कोटर में और कुछ जीव जड़ों में निवास करते हैं। सह-अस्तित्व का पर्यायवाची हैं छाया, आश्रय, फल देनेवाले वृक्ष। इन वृक्षों के विनाश ने प्रकृतिचक्र को तो बाधित किया ही, दिन में बीस हजार श्वास लेनेवाला मनुष्य भी श्वास के लिए संघर्ष करने लगा।

बचपन में हम सबने शेखचिल्ली की कहानी सुनी थी। वह उसी डाल को काट रहा था, जिस पर बैठा था। अब तो आलम यह है कि पूरी आबादी के हाथ में कुल्हाड़ी है। मरना कोई नहीं चाहता पर जीवन के स्रोतों पर हर कोई कुल्हाड़ी चला रहा है। डालें कट रही हैं, डालें कट चुकी। मनुष्य औंधे मुँह गिर रहे हैं, मनुष्य गिर चुका।

इस कुल्हाड़ी के फलस्वरूप विशेषकर शहरों में सीपीओडी या श्वसन विकार बड़ी समस्या बन गया है। सिरदर्द एक बड़ा कारण प्रदूषण भी है। इसके चलते शहर की आबादी का एक हिस्सा आँखों में जलन की शिकायत करने लगा है। स्वस्थ व्यक्ति भी अनेक बार दम घुटता-सा अनुभव करता है।

यह कहना झूठ होगा कि देर नहीं हुई है। देर हो चुकी है। मशीनों से विनाश का चक्र तो गति से घुमाया जा सकता है पर सृजन के समय में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। बीस मिनट में पेड़ को धराशायी करनेवाला आधुनिक तंत्रज्ञान, एक स्वस्थ विशाल पेड़ के धरा पर खड़े होने की बीस वर्ष की कालावधि में कोई परिवर्तन नहीं कर पाता। यह अंतर एक पीढ़ी के बराबर हो चुका है। इसे पाटने के त्वरित उपायों से हानि की मात्रा बढ़ने से रोकी जा सकती है।

हर नागरिक को तुरंत सार्थक वृक्षारोपण आज और अभी करना होगा। यही नहीं उसका संवर्धन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। सार्थक इसलिए कि भारतीय धरती के अनुकूल, दीर्घजीवी, विशाल वृक्षों के पौधे लगाने होंगे। इससे ऑक्सीजन की मात्रा तो बढ़ेगी ही, पर्यावरण चक्र को संतुलित रखने में भी सहायता मिलेगी।

सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था को तत्काल प्रभाव से दुरुस्त करना होगा। सरकारी महकमे की बसों के एकाधिकार वाले क्षेत्रों में निजी कंपनियों को प्रवेश देना होगा। सरकारी बसों में सुधार की आशा अधिकांश शहरों में ‘न नौ मन तेल होगा, ना राधा नाचेगी’ सिद्ध हो चुकी है।

उद्योगों को अनिवार्य रूप से आवासीय क्षेत्रों से बाहर ले जाना होगा। वहाँ भी चिमनियों को 250 फीट से ऊपर रखना होगा। इसके लिए निश्चित नीति बना कर ही कुछ किया जा सकता है। सबसे पहले तो लाभ की राजनीति का ऐसे मसलों पर प्रवेश निषिद्ध रखना होगा। उत्खनन भी पर्यावरण-स्नेही नीति की प्रतीक्षा में है।

हर बार, हर विषय पर सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। लोकतंत्र में नागरिक शासन की इकाई है। नागरिकता का अर्थ केवल अधिकारों का उपभोग नहीं हो सकता। अधिकार के सिक्के का दूसरा पहलू है कर्तव्य। साधनों के प्रदूषण में जनसंख्या विस्फोट की बड़ी भूमिका है। जनसंख्या नियंत्रण तोे नागरिक को ही करना होगा।

आजकल घर-घर में आर.ओ. से शुद्ध जल पीया जा रहा है। घर से बाहर खेलने जाते बच्चे से माँ कहती है, ‘बाहर का पानी बहुत गंदा है, मत पीना।’ समय आ सकता है कि घर-घर में ऑक्सीजन किट लगा हो और और अपने बच्चे को शुद्ध ऑक्सीजन की खुराक देकर खेलने बाहर भेजती माँ आगाह करे, ‘साँस मत लेना।’

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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माया कटारा

साँस मत लेना – सटीक व्यंग्यात्मक आलेख
पर्यावरण संरक्षण संबंधी मार्गदर्शक उपाय के लिए कोटिशः धन्यवाद. …

अलका अग्रवाल

सटीक व्यंग्य-‘सांस मत लेना’। पर्यावरण के दूषित होने के कारणों व उनको दूर करने के उपायों को दर्शाता सटीक, सार्थक आलेख।