डॉ. हंसा दीप
संक्षिप्त परिचय
यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।
☆ कथा-कहानी ☆ दो पटरियों के बीच ☆ डॉ. हंसा दीप ☆
बिटिया अपने एक अलग ही संसार में रहने लगी थी, सबसे अलग-थलग। उसे किसी से कभी कोई शिकायत नहीं होती थी, यहाँ तक कि खुद से भी नहीं। छोटी-छोटी बातों से खुश हो जाती, बड़ी-बड़ी बातों से दु:खी नहीं होती। बड़े-बड़े काम भी आसानी से कर लेती थी। एक ओर उसकी माँ थीं जो शिकायतों का पुलिंदा साथ लिये, सीने से लगाए घूमती थीं। छोटी-छोटी बातों से उदास हो जातीं, छोटे-छोटे कामों को करने से कतराती थीं। दोनों के स्वभाव में यही अंतर था। कहने को छोटा-सा अंतर परन्तु आकाश और पाताल की दूरी जितना बड़ा अंतर। पाताल में से ऊपर आकाश को देखने जैसा। एक दूसरे की पहुँच से काफी दूर।
एक ही लाड़ली घर में और एक ही माँ। दो अलग-अलग आकार-प्रकार के पिलर पर टिका घर। एक पिलर ऊँचा, एक नीचा। एक पतला, एक थुलथुल। संतुलन तो बिगड़ना ही था। रोज बिगड़ता था। दोनों में कहीं कोई साम्य नहीं था। माँ के मन में कई बार यह सवाल उठता कि क्या उन्होंने इसी बच्ची को जन्म दिया था या फिर अस्पताल में कहीं कोई अदला-बदली हो गयी थी। माँ-बेटी के स्वभाव, उनके रहन-सहन में और सोच-विचार में दूर-दूर तक कहीं कोई साम्य नहीं!
बचपन से माता-पिता का सारा दुलार माँ की ओर से उसी पर बरसता रहा। और वह माँ की आँखों से देखती रही दुनिया का वह खुशनुमा रूप जहाँ सब कुछ अच्छा ही अच्छा था। किसी बुराई के लिये कोई जगह नहीं थी। लेकिन बुराइयों को अपनी जगह बनाने में कहाँ समय लगता है! वो कहीं न कहीं से सुराख तलाश ही लेती हैं। वही हुआ। एक के बाद एक तिनके जैसी उड़-उड़ कर आती रहीं और घोंसला बनाने के लिये जगह करती रहीं। माँ और बेटी के उस घोंसले में एक और घोंसला बनता गया। एक और घर बनता गया उसी घर में। एक ओर माँ का व्यक्तित्व था सात्विक, निरा शुद्ध तो दूसरी ओर बेटी का ऐसा व्यक्तित्व जो आधुनिकता की आड़ में वह सब करना चाहता था जो किया जा सके। न कोई आदर्श उसका रास्ता रोकता था, न कोई सिद्धांत कभी आड़े आता था। जहाँ अपना फायदा दिखे वह सब कुछ अच्छा था, जहाँ अपना फायदा नहीं उसकी कोई जगह नहीं थी उसके अपने हिस्से की दीवार के अंदर।
एक घर था, दो लोग थे। धीरे-धीरे एक घर के दो घर हो गए थे बीच में दीवार की आड़ लिये। अब एक छत के नीचे दो अलग-अलग दुनिया थी। एक दीवार के पार मंदिर था, पूजा थी, आराध्य थे। दूसरी दीवार के पार सारे भौतिक सुख थे, खुद ही आराध्य और खुद ही पूजा। खुद की प्रसन्नता का पूजा घर था। सात्विकता पर तामसिकता का जोर कुछ अधिक ही भारी होने लगा था। लेकिन दोनों के लिये अपनी जिंदगी सात्विक ही थी, अलग-अलग परिभाषाओं के साथ। आधुनिकता का मुलम्मा चढ़ा कर सारे घिसे-पिटे ख़्यालों को आजाद करने की कामयाब कोशिश थी। उन काई जमे ठस्स ख्यालों पर रद्दा ऐसे चलता था जैसे कहा जा रहा हो – “बहुत हो गया अब, छोड़ आए वह जमाना।”
माँ के लिये एक प्रश्न चिन्ह सदा आँखों की किरकिरी बना रहता कि आखिर जीवन के किस मोड़ पर बिटिया इतनी आहत हुई होगी कि उसके लिये ‘स्व’ ही जहान था? किसी और का कोई अस्तित्व ही नहीं रहा। शायद सबसे बड़ी वजह यही रही हो कि माँ को इतने कष्ट उठाकर उसे बड़ा करते देख वह बगावती हो गयी हो। जबकि माँ ने तो सोचा था कि कष्टों में बीता जीवन इंसान में सहानुभूति लाता है, हमदर्दी लाता है। यह बगावत कब और कैसे जगह बना ले गयी, यह एक पहेली थी उनके लिये। माँ ने तमाम कष्टों में भी अपने तई बिटिया को हर खुशी देने की कोशिश की थी लेकिन उसके लिए शायद वह सब पर्याप्त नहीं था। उसकी चाहतों की ऊँचाइयाँ, माँ की सोच की छत से काफी ऊपर थीं।
जमीनी सच्चाइयों में जीते हुए वह आसमान की ऊँचाइयों में उड़ती चली गयी। उसके सामने अब सिर्फ उड़ानें ही थीं। चलना तो जैसे सीखा ही नहीं था उसने। सीधे पंख फैला लिये थे उड़ने के लिये। आकाश की उन ऊँचाइयों तक उड़ना जहाँ से अगर गिरे तो इस कदर टूट जाए कि शरीर का हर हिस्सा एक दूसरे से कोसों दूर हो कर बिखर जाए! घर बैठे भी उसकी दिनचर्या में दुनिया भर की खुशियाँ शामिल थीं। दीवार के उस पार का संसार बगैर देखे भी दिखाई देता था माँ को। वो समझ नहीं पाती थीं कि यह कैसे संभव था कि बोया गुलाब मगर उग गया बबूल!
माँ बूढ़ी होती रहीं और वह जवान। माँ शादी करके बेवा बनी रहीं और उसने ताउम्र शादी ही नहीं की। एक के बाद एक ऐसे दोस्त बनाती गयी जो उसकी तन, मन, धन की सारी आवश्यकताओं की पूर्ति कर देते थे। वह अपनी जिंदगी में इस कदर मस्त रही कि कभी यह नहीं देख पाई कि इन आदतों से उसकी अपनी माँ कितनी त्रस्त थीं।
आए दिन के ये हालात रोज की किच-किच में बदलने लगे – “अब मैं नहीं देख सकती यह सब अपने घर में। तुम किसी एक के साथ शादी क्यों नहीं कर लेतीं।”
“तुमने शादी करके किया क्या माँ? बस मुझे ले आयीं इस दुनिया में।”
“तुम्हें लायी वरना जीती कैसे? दीवारों से सिर टकरा-टकरा कर मर जाती।”
“अब मैं दीवारों से सिर टकरा रही हूँ, लेकिन चोट खाने के लिये नहीं बल्कि चोट देने के लिये।”
“कम से कम एक बार मुझे यह तो बता दो कि तुम चाहती क्या हो अपने जीवन से!”
“मैं अपने जीवन से जो चाहती हूँ वह ले रही हूँ लेकिन माँ तुम क्या चाहती हो? बस यही न कि मैं शादी कर लूँ।”
“हाँ”
“लेकिन क्यों, जब बगैर शादी के ही सब कुछ है मेरे पास तो फिर किसी ऐसे सर्टिफिकेट की क्या जरूरत?”
“बस अभी सब कुछ है तुम्हारे पास किन्तु बाद में सब छोड़ जाएँगे तुम्हें।”
“पति नहीं छोड़ेगा इसकी क्या गारंटी माँ? तुम तो इतनी पतिव्रता थीं, पर तुम्हारा पति छोड़ गया न तुम्हें!”
“हर बात में नकारात्मक ही क्यों सोचती हो तुम? जरूरी है कि मेरे साथ जो हुआ वही तुम्हारे साथ भी हो? शादी से घर बसेगा, परिवार बनेगा, तुम्हारे अपने होंगे परिवार में।”
“अपने? अपने-पराए सारे अपने-अपने स्वार्थ की डोरी से बंधे हैं। एक डोरी टूटी और किस्सा खत्म। मेरे लिये ये जो रोज आते हैं, ये ही मेरे परिवार का हिस्सा हैं।”
“इन क्षणभंगुर रिश्तों से परिवार नहीं बनता। कुछ पलों का साथ तो बस मनोरंजन के लिये ही हो सकता है।”
“मनोरंजन! हाँ माँ, मन खुश हो तो ही दुनिया भली लगती है। आप खुश नहीं हो तो आपको हर कोई दुखियारा नज़र आता है।”
“अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी क्यों मारना चाहती हो? मुझे अच्छा नहीं लगता जब अकेले इन लोगों से माथा फोड़ती रहती हो। कभी फोन वाले से लड़ रही हो तो कभी बिजली वाले से, कभी डॉक्टर से तो कभी राह चलते से।”
“माथा मैं नहीं फोड़ती ये लोग फोड़ते हैं।”
“अरे बाबा! इसीलिये तो कहती हूँ कि ढूँढ लो कोई, ऐसा जो तुम्हारा अपना हो, जीवन के हर काम में तुम्हारे साथ रहे, तुम्हारी मदद करे। ढूँढ लो कोई मेरे बच्चे, कुछ पलों का साथ तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा।”
“हाँ सारे लाइन लगा कर खड़े हैं न मेरे लिये कि आ जाओ मेरे गले में माला डाल दो।”
“देखोगी तो पता लगेगा कि खड़े हैं या नहीं।”
“तुम बस एक ही बात को ले कर क्यों बैठ जाती हो माँ!”
“देखने के लिये तो कह रही हूँ, अभी की अभी शादी करने के लिये तो कह नहीं रही न।”
“माँ ये सारी बातें हम कितनी बार कर चुके हैं?”
“अनगिनत बार।”
“तो फिर, कोई हल निकला कभी?”
“नहीं।”
“तो फायदा क्या घुमा-फिरा कर एक ही एक बात के पीछे पड़ने का? वही-वही बात, जब देखो तब!”
“वही-वही बात तुम्हारी तसल्ली के लिये नहीं, मेरी अपनी तसल्ली के लिये करती हूँ।”
“माँ तसल्ली से जीवन नहीं चलता, तृप्ति से चलता है, मन की, तन की और धन की। तुम्हें क्या लगता है कि एक लड़के के साथ शादी करके तन-मन-धन की खुशियाँ मेरे कदमों में होंगी, तीनों मिल जाएँगी मुझे!”
“हाँ, क्यों नहीं, अपनी-अपनी संतुष्टि के पैमाने तो तय करने ही पड़ते हैं।”
“वही तो करती हूँ, मेरी संतुष्टि का पैमाना थोड़ा बड़ा है।”
“तुम दुनिया में अच्छाइयाँ क्यों नहीं देख पातीं? सब कुछ इतना तो बुरा नहीं है जितना तुम्हें लगता है।”
“हों तब तो देखूँ दुनिया की अच्छाइयाँ, एक भी हो तो बता दो मुझे। वैसे सच कहूँ माँ, तुम इस दुनिया के काबिल न पहले थीं, न अब हो। तुम समय से पीछे ही रहती हो। अब वह जमाना नहीं रहा जब सिर्फ शादी करके, बच्चे पैदा करके, सुबह से शाम तक खाने के लिये इंतज़ार करके काट लो अपनी ज़िंदगी। अब तो हर पल, हर घड़ी का फायदा उठाने का जमाना है।”
“शादी नहीं, बच्चे नहीं तो फिर तुम्हारा अपना रहेगा क्या? बेकार में बहस करती हो। तन, मन, धन की बात करती हो, अगर खुश रहना है तो कभी-कभी इन तीनों में से एक को चुनना पड़ जाता है।”
“हाँ, चुनना चाहा था मैंने। मन की तृप्ति चुनी थी तो पता चला कि इसमें कई बार भूखे मरना पड़ता है। तन की तृप्ति भी चुनी थी जो उम्र के साथ कम हो जाती है, तो अब बचती है क्या, धन की तृप्ति न, वही तो मैंने चुन ली है। और देखो माँ, इसमें तो हर हाल में जीत ही जीत है।”
माँ निरुत्तर थीं, क्या कहतीं। कुछ कहने को छोड़ा ही नहीं था उसने। कितनी बार बहस करतीं अपनी बेटी से जो समय से पहले ही जीवन का मर्म समझ गयी थी और उसकी माँ रह गयी थीं पीछे। जमाने के साथ न तब चल पायी थीं, न अब। रह गयी थीं नासमझ की नासमझ, आला दर्जे की बेवकूफ।
क्या सचमुच वे जमाने की दौड़ में इतनी पीछे रह गई थीं कि उनकी अपनी संतान के और उनके विचारों में कोई मेल नहीं था? एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत थे। सब कुछ तो वैसा ही था उसके बचपन में, जैसा उन्होंने चाहा था। अकेली माँ जैसे बच्चे को बड़ा कर सकती है उसी तरह सब किया था उन्होंने। फिर यह सब कब और कैसे हुआ, पता ही नहीं चला। बेटी खुश है लेकिन माँ को उसकी यह खुशी नकली लगती है। बेटी इस बात को स्वीकार नहीं करती कि वह यह सब गुस्से में कर रही है।
न माँ, न बेटी, न यह घर और न उनके कमरे की दीवारें, कोई भी बदलने को तैयार ही नहीं। सबकी अपनी-अपनी जिद तो थी पर कोई झुकने को तैयार नहीं था। वह तो बस इसी तरह जीना चाहती थी, एक आजाद परिंदे की तरह जिसे घर लौटने की कोई जल्दी न हो, घर से जाने की भी कोई जल्दी न हो। घड़ी के काँटे आगे बढ़ें तो उसकी इच्छा से और समय का चक्र बस उसके आदेशों पर चलता रहे।
एक बार माँ ने कोशिश की थी कि इन दीवारों को नया रूप दे दिया जाए तब शायद बिटिया का मन बदले पर वह भी न हो पाया। दीवारों की मजबूती ऐसी थी कि तोड़ने वाले ने कहा– “एक दीवार टूटने से पूरा मकान ही टूट जाएगा। इसकी मजबूती पर सब कुछ टिका हुआ है।”
और तब उन्होंने भी घुटने टेक दिए थे। इंसान तो इंसान, ईंट और पत्थर भी अपनी जिद पर अड़े थे कि हम जैसे हैं वैसे ही रहेंगे। माँ-बेटी दोनों के अपने-अपने रास्ते थे, चल तो रहे थे मगर पटरियों की तरह अलग-अलग। दो पटरियाँ समानान्तर चल रही थीं। कभी न मिलना उनकी नियति थी। शायद माँ भी सही थीं और बेटी भी। जितनी तेजी से जमाना बदल रहा था उतनी ही तेजी से पीढ़ियों का गहराता अंतर बोल रहा था, दीवारों के आर-पार से।
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