डा संजीव कुमार
जीवन यात्रा – डा संजीव कुमार – जिन पर माँ लक्ष्मी व सरस्वती दोनो का ही वरदहस्त है ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव
एक ही व्यक्ति में लेखक, कवि, संपादक, आलोचक तो मिल जाते हैं, किन्तु जब वही व्यक्ति अंतरराष्ट्रीय स्तर का प्रकाशक, स्थापित प्रशासक, स्तरीय कानूनविद अधिवक्ता, समाज सेवी, भारतीय वांग्मय का गहन अध्येता, वैश्विक पर्यटक, बाल मनोविज्ञान की समझ रखने वाला,अनुवादक, सरल व्यक्तित्व का भी हो तो वह डा संजीव कुमार ही हो सकते हैं. उन पर माँ लक्ष्मी व सरस्वती दोनो की ही बराबरी से कृपा है. किन्तु वे स्वभाव से निराभिमानी हैं. सुस्थापित है कि ऐसे बिरले भव्य किन्तु सहज चरित्र का विकास तभी हो पाता है जब मन में सब ओर से निश्चिंतता व शांति हो अतः मैं हिन्दी जगत की ओर से डा संजीव कुमार के परिवार विशेष रूप से उनकी श्रीमती जी को हार्दिक बधाई व धन्यवाद देना चहाता हूं. मैं डा लालित्य ललित जी का अनुग्रह मानता हूं कि उन्होने मेरा परिचय मेरे व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन के सिलसिले में डा संजीव कुमार से करवाया. भोपाल में जब वे शांति गया सम्मान समारोह में विशिष्ट अतिथि के रुप में आये तो उनसे व श्रीमती कुमार से सहज भेंट का अवसर मिला, उनकी सरलता से मैं अंतरमन तक प्रभावित हुआ.
विभिन्न कानूनी विषयों पर डा संजीव कुमार की 36 से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. कोरोना के प्रतिकूल समय में जब ज्यादातर पत्रिकायें प्रिंट मीडिया से गायब होती जा रही हैं, डा संजीव कुमार ने विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका अनुस्वार के प्रकाशन प्रारंभ का बीड़ा उठाने का दुस्साहस किया, वे पत्रिका के मुख्य संपादक हैं, अनुस्वार के अंको का विमोचन भौतिक आयोजन के अतिरिक्त ई प्लेटफार्म पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपन्न हुआ, जिस मेगा कार्यक्रम का मैं साक्षी व सहभागी भी रहा हूं. अनुस्वार स्तरीय साहित्यिक पत्रिका सिद्ध हो रही है.
हिन्दी साहित्य में डा संजीव कुमार की 75 से अधिक पुस्तकें पूर्व प्रकाशित हैं. वे हिन्दी वांग्मय के गहन अध्येता ही नहीं हैं उसे समय के चश्में से देख नये दृष्टिकोण से पुनर्प्रस्तुत करने का महति कार्य कर रहे हैं. हिन्दी व अंग्रेजी पर उनका पठन पाठन ही नही बराबरी से अभिव्यक्ति का आधार भी है. काविता उनकी सर्वाधिक प्रिय विधा है. वासवदत्ता, उर्वशी, गुंजन, अंजिता, आकांक्षा, मेरे हिस्से की धूप, इंदुलेखा, ऋतुमयी, कोणार्क, तिष्यरक्षिता, यक्षकथा, माधवी, अश्मा,जैसे चर्चित प्रबंध काव्य उन्होने हिन्दी जगत को दिये हैं. जब कवि संजीव कुमार तिष्यरक्षिता का वकील बनकर उसके कामातुर व्यवहार का वर्णन करते हैं तो उसमें इतिहास, मनोविज्ञान, साहित्यिक कल्पना सभी कुछ समाहित कर प्रबंध काव्य को पठनीय, विचारणीय, मनन करने योग्य बनाकर पाठक के सम्मुख कौतुहल जनित, नारी विमर्श के प्रश्नचिन्ह खड़े कर पाने में सफल सिद्ध होते हैं. ऐसे समीचीन विषयों पर वे अपनी स्वयं की वैचारिक उहापोह को अभिव्यक्त करने के लिये अकविता को विधा के रूप में चुनते हैं.तत्सम शब्दो का प्रवाहमान प्रयोग कर लम्बी भाव अकविताओ में मनोव्यथा की सारी कथा बड़ी कुशलता से कह लेते हैं.
ग्रामा, ऋतंभरा, ज्योत्स्ना, उच्छ्वास, नीहारिका, स्वप्नदीप, मधुलिका, मालविका, किरणवीणा, प्राजक्त, अणिमा, स्वर्णकिरण, युगान्तर, परिक्रमा, अंतरा, अपराजिता, क्षितिज, टूटते सपने मरता शहर, मुक्तिबोध, समय की बात, शब्दिका, वणिका, मनपाखी, अंतरगिणी, यकीन नहीं होता, रुही, सरगोशियां, थोड़ा सा सूर्योदय, समंदर का सूर्य, कादम्बरी, टीके और गिद्ध, मौन का अनुवाद, कल्पना से परे, कहीं अंधरे कहीं उजाले, शहर शहर सैलाब, मैं भी ( मी टू ), माँ, खामोशी की चीखें, लवंगलता एवं मेरे ही शून्य में जैसे शीर्षक से उनके काव्य संग्रह प्रकाशित व पाठको के बीच लोकप्रिय तथाविभिन्न संस्थाओ से समय समय पर सम्मानित हैं. दरअसल यह उनकी तत्सम शब्दशैली, पौराणिक आख्यानो की नये संदर्भ में पाठक के मनोकूल विवेचना का सम्मान है.
कवि मन सदा गंभीर क्लिष्ट ही नही बना रहता वह “बच्चों के रंग बच्चों के संग” जैसी कृतियां भी खेलखेल में कर डालता है. राजस्थानी, अंग्रेजी तथा डोगरी, छत्तीसगढ़ी, बांग्ला, तमिल आदि भाषाओ में अनुवाद कार्य भी उनकी कृतियों पर संपन्न हुआ है.
डा संजीव कुमार न केवल स्वयं निरंतर मौलिक सृजन कर रहे हैं, वे अमेरिका सहित विदेशो में हिन्दी पुस्तको को व्यावसायिक रूप से पहुंचाने के महत्वपूर्ण कार्य भी कर रहे हैं. देश विदेश के सुदूर अंचलो से लेखको को प्रकाशित कर वे हिन्दी जगत को लगातार समृद्ध कर रहे हैं. मैं अंतरमन से उनकी सक्रिय समृद्ध साहित्यिक यात्रा के शाश्वत होने की शुभकामना करता हूं.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
वाकई इतनी बहुमुखी प्रतिभा के मालिक हैं संजीव जी कि अचरज होता है, जैसे सब कर लेते हैं, उस पर इतने सहज कि विश्वास न हो, ईश्वर संजीव जी को शतायु करें, वे ऐसे ही अपनी रचना धर्मिता के साथ साहित्य की सेवा करते रहे,