डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख कोरोना और भूख। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 122 ☆

☆ कोरोना और भूख

कोरोना बाहर नहीं जाने देता और भूख भीतर नहीं रहने देती। आजकल हर इंसान दहशत के साये में जी रहा है। उसे कल क्या, अगले पल की भी खबर नहीं। अब तो कोरोना भी इतना शातिर हो गया है कि वह इंसान को अपनी उपस्थिति की खबर ही नहीं लगने देता। वह दबे पांव दस्तक देता है और मानव शरीर पर कब्ज़ा कर बैठ जाता है। उस स्थिति में मानव की दशा उस मृग के समान होती है, जो रेगिस्तान में सूर्य की चमकती किरणों को जल समझ कर दौड़ता चला जाता है और वह बावरा मानव परमात्मा की तलाश में इत-उत भटकता रहता है। अंत में उसके हाथ निराशा ही लगती है, क्योंकि परमात्मा तो आत्मा के भीतर बसता है। वह अजर, अमर, अविनाशी है। उसी प्रकार कोरोना भी शहंशाह की भांति हमारे शरीर में बसता है, जिससे सब अनभिज्ञ होते हैं। वह चुपचाप वार करता है और जब तक मानव को रोग की खबर मिलती है,वह लाइलाज घोषित कर दिया जाता है। घर से बाहर अस्पताल में क्वारेंटाइन कर दिया जाता है और आइसोलेशन में परिवारजनों को उससे मिलने भी नहीं दिया जाता। तक़दीर से यदि वह ठीक हो जाता है, तो उसकी घर-वापसी हो जाती है, अन्यथा उसका दाह-संस्कार करने का दारोमदार भी सरकार पर होता है। आपको उसके अंतिम दर्शन भी प्राप्त नहीं हो सकते। वास्तव में यही है– जीते जी मुक्ति। कोरोना आपको इस मायावी संसार ले दूर जाता है। उसके बाद कोई नहीं जानता कि क्या हो रहा है आपके साथ… कितनी आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है आपको… और अंत में किसी से मोह-ममता व लगाव नहीं; उसी परमात्मा का ख्याल … है न यह उस सृष्टि-नियंता तक पहुंचने का सुगम साधन व कारग़र उपाय। यदि कोई आपके प्रति प्रेम जताना भी चाहता है, तो वह भी संभव नहीं, क्योंकि आप उन सबसे दूर जा चुके होते हो।

परंतु भूख दो प्रकार की होती है… शारीरिक व मानसिक। जहां तक शारीरिक भूख का संबंध है, भ्रूण रूप से मानव उससे जुड़ जाता है और अंतिम सांस तक उसका पेट कभी नहीं भरता। मानव उदर-पूर्ति हेतु आजीवन ग़लत काम करता रहता है और चोरी-डकैती, फ़िरौती, लूटपाट, हत्या आदि करने से भी ग़ुरेज़ नहीं करता। बड़े-बड़े महल बनाता है, सुरक्षित रहने के लिए, परंतु मृत्यु उसे बड़े-बड़े किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों के पीछे से भी ढूंढ निकालती है। सो! कोरोना भी काल के समान है, कहीं भी, किसी भी पल किसी को भी दबोच लेता है। फिर इससे घबराना व डरना कैसा? जिस अपरिहार्य परिस्थिति पर आपका अंकुश नहीं है, उसके सम्मुख नतमस्तक होना ही बेहतर है। सो! आत्मनिर्भर हो जाइए, डर-डर कर जीना भी कोई ज़िंदगी है। शत्रु को ललकारिए, परंतु सावधानी-पूर्वक। इसलिए एक-दूसरे से दो गज़ की दूरी बनाए रखिए, परंतु मन से दूरियां मत बनाइए। इसमें कठिनाई क्या है? वैसे भी तो आजकल सब अपने-अपने द्वीप में कैद रहते हैं… एक छत के नीचे रहते हुए अजनबीपन का एहसास लिए…संबंध-सरोकारों से बहुत ऊपर। सो! कोरोना तो आपके लिए वरदान है। ख़ुद में ख़ुद को तलाशने व मुलाकात करने का स्वर्णिम अवसर है, जो आपको राग-द्वेष व स्व-पर के बंधनों से ऊपर उठाता है। इसलिए स्वयं को पहचानें व उत्सव मनाएं। कोरोना ने आपको अवसर प्रदान किया है, निस्पृह भाव से जीने का; अपने-पराये को समान समझने का… फिर देर किस बात की है। अपने परिवार के साथ प्रसन्नता से रहिए। मोबाइल व फोन के नियंत्रण से मुक्त रहिए, क्योंकि जब आप किसी के लिए कुछ कर नहीं सकते, तो चिन्ता किस बात की और तनाव क्यों? घर ही अब आपका मंदिर है, उसे स्वर्ग मान कर प्रसन्न रहिए। इसी में आप सबका हित है। यही है ‘ सर्वे भवंतु सुखिनः ‘ का मूल, जिसमें आप भरपूर योगदान दे सकते हैं। सो! अपने घर की लक्ष्मण-रेखा न पार कर के, अपने घर में ही अलौकिक सुख पाने का प्रयास कीजिए। लौट आइए! अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर…तनिक चिंतन कीजिए, कैसे ऋषि-मुनि वर्षों तक जप-तप करते थे। उन्हें न भूख सताती थी; न ही प्यास। आप भी तो ऋषियों की संतान हैं। ध्यान-समाधि लगाइए– शारीरिक भूख-प्यास आप के निकट आने का साहस भी नहीं जुटा पाएगी और आप मानसिक भूख पर स्वतः विजय प्राप्त करने में समर्थ हो सकेंगे।

आधुनिक युग में आपके बुज़ुर्ग माता-पिता तो वैसे भी परिवार की धुरी में नहीं आते। बच्चों के साथ खुश रहिए। एक-दूसरे पर दोषारोपण कर घर की सुख-शांति में सेंध मत लगाइए। पत्नी और बच्चों पर क़हर मत बरसाइए, क्योंकि इस दशा के लिए दोषी वे नहीं हैं। कोरोना तो विश्वव्यापी समस्या है। उसका डटकर मुकाबला कीजिए। अपनी इच्छाओं को सीमित कर ‘दाल रोटी खाओ, प्रभु के गुण गाओ’ में मस्त रहिए। वैसे भी पत्नी तो सदैव बुद्धिहीन अथवा दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती है। सो! उस निर्बल व मूर्ख पर अकारण क्रोध व प्रहार क्यों? बच्चे तो निश्छल व मासूम होते हैं। उन पर क्रोध करने से क्या लाभ? उनके साथ हंस-बोल कर अपने बचपन में लौट जाइए, क्योंकि यह सुहाना समय है…खुश रहने का; आनंदोत्सव मनाने का। ज़रा! देखो तो सदियों बाद कोरोना ने सबकी साध पूरी की है… ‘कितना अच्छा हो, घर बैठे तनख्वाह मिल जाए… रोज़ की भीड़ के धक्के खाने से  मुक्ति प्राप्त हो जाए…बॉस की डांट-फटकार का भी डर न हो और हम अपने घर में आनंद से रहें।’ लो! सदियों बाद आप सबको मनचाहा प्राप्त हो गया…परंतु बावरा मन कहां संतुष्ट रह पाता है, एक स्थिति में…वह तो चंचल है। परिवर्तनशीलता सृष्टि का नियम है। मानव अब तथाकथित स्थिति में छटपटाने लगा है और उस से तुरंत मुक्ति पाना चाहता है। परंतु आधुनिक परिस्थितियां मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। अब तो समझौता करने में ही उसका हित है। सो! मोबाइल फोन को अपना साथी बनाइए और भावनाओं पर नियंत्रण रखिए, क्योंकि तुम असहाय हो और तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। तुम्हारी आवाज़ तो  दीवारों से टकराकर लौट आएगी।

औरत की भांति हर विषम परिस्थिति में ओंठ सी कर व मौन रह कर खुश रहना सीखिए और सर्वस्व समर्पण कर सुक़ून की ज़िंदगी गुज़ारिए। यहां तुम्हारी पुकार सुनने वाला कोई नहीं। अब सृष्टि-नियंता की कारगुज़ारियों को साक्षी भाव से देखिए, क्योंकि तुमने मनमानी कर धन की लालसा में प्रकृति से खिलवाड़ कर पर्यावरण को प्रदूषित कर दिया है, यहां तक कि अब तो हवा भी सांस लेने योग्य नहीं रह गयी है। पोखर, तालाब नदी-नालों पर कब्ज़ा कर उस भूमि पर कंकरीट की इमारतें बना दी हैं। इसलिए मानव को बाढ़, तूफ़ान, सुनामी, भूकंप, भू-स्खलन आदि का प्रकोप झेलना पड़ रहा है। जब इस पर भी मानव सचेत नहीं हुआ, तो प्रकृति ने कोरोना के रूप में दस्तक दी है।

इसलिए कोरोना, अब काहे का रोना। इसमें दोष तुम्हारा है। अब भी संभल जाओ, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब सृष्टि में पुनः प्रलय आ जाएगी और विनाश ही विनाश चहुंओर प्रतिभासित होगा। इसलिए गीता के संदेश को अपना कर निष्काम कर्म करें। मानव इस संसार में खाली हाथ आया है और खाली हाथ उसे जाना है। इस नश्वर संसार में अपना कुछ नहीं है। इसलिए प्रेम व नि:स्वार्थ भाव से सबकी सेवा करो। न जाने! कौन-सी सांस आखिरी सांस हो जाए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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