डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप ‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।
☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 12 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी☆
(हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
चल घर राही आपुनो
कार हाईवे पर अपनी गति से चल रही है। स्मृति कानों में वशीर बद्र के शेर को लगी गुनगुनानेःः ‘न जी भर के देखा, न कुछ बात की। बड़ी आरजू थी मुलाकात की।’ तो नायाग्रा, अलविदा।
कार में चलते चलते यह भी बता दें कि नायाग्रा की चुनौती भी अजीब है। उसे देखकर लोग केवल उसके दीवाने ही नहीं हो जाते, बल्कि कइयों ने उस पर छलाँग लगाने की कोशिश की या रस्सी पर चलकर उसे पार करने का प्रयास किया। वही शमा-परवाने की दास्तां। सबसे पहले मिचिगन की एक स्कूल टीचर एन्नी एडसन टेलर ने 63 साल की उम्र में एक बैरेल में खुद को बंद करके नायाग्रा के ऊपर से नीचे छलाँग लगायी थी। दिन था 24 अक्टूबर, 1901। यह तो यीशु की किरपा समझिए कि उन्हें कुछ खरौंच और हल्की चोट से अधिक कुछ न हुआ। वह मर्दानी बच गयी। उनके पहले 19 अक्टूबर को एक बेचारी बिल्ली इयागारा को इसी तरह बक्से में बंद करके ऊपर से नीचे झरने में फेंका गया। वह भी बच गयी या शहीद हो गयी – यह बात विवादास्पद है। सरफिरे इंसानों की करामात तो जरा देखिए।
बिना किसी सहायता के छलाँग लगा कर जिन्दा बच जाने वाला पहला इन्सान था वही मिचिगन का किर्क जोन्स कैन्टॉन। 20.10.2003 को हार्स शू फॉल से झरने की धारा में वह कूद गया था।
अब यह हाईवे वैसे तो छह लेन का है ही। मगर डिवाइडर की ओर सबसे बायें है एच् ओ वी यानी हाई अॅक्युपेन्सि लेन। अर्थात दो से अधिक यात्री लेकर जो कार जा रही है, केवल वही इस लेन से जायें। टोरंटो में पैन अमेरिकन गेम्स चलने के कारण टोरंटो के पास यह सूचना जारी हो गई। उद्देश्य है कि सब कार पुल करके चलायें। एक ही कार में कई सवारी, रहे सलामत दोस्ती हमारी !
दोनों तरफ पेड़, लंबी लंबी घास – हरे रंग का समारोह। बीच से दौड़ती चमकती काली सड़क। उस पर लेन को बाँटने वाले सफेद दाग भी महावर की तरह चमक रहे हैं। कहीं कहीं सड़क पर इस छोर से उस छोर तक ब्रिज। वैसे तो टोरंटो डाउन टाउन बीस तीस कि.मी. दूर है यहाँ से। मगर कितनी सारी बहुमंजिली इमारतें। चालीस पचास तल्ले या उससे अधिक भी। सांय सांय भागती कारें। दिन में भी सबकी हेड लाइट जल रही हैं। काँहे भाई ? पूछने पर रुपाई फरमाते हैं, ‘गाड़ी स्टार्ट करते ही हेड लाइट जल उठती है।’
रास्ते में जंगलों के पास बाड़े की शक्ल में ऊँची साउंडप्रुफ दीवार खड़ी है। ताकि वाहनों की पों पों से वनवासियों की शांति में कोई व्याघात न पहुँचे। जंगल के चैन में कोई खलल न पड़े। वाह रे संवेदना!
कहीं कहीं पेड़ों के पीछे से झाँकते कॉटेज। यहाँ किसी मकान में छत नहीं होती। ऊपर सिर्फ ढलान होती है।
धरती पर भी नाव चलती है क्या? जी हाँ। किसी कार के ऊपर, तो किसी कार के पीछे ट्रॉली पर सवार है नौका। किंग्सटन में तो लोग कैनो या छोटी नाव कार के ऊपर चढ़ा कर खूब चलते हैं। वहाँ तो घर के सामने भी कार की तरह नाव रखी होती है।
इतने में भुर्र भुर्र …..बगल में श्रीमतीजी की नाक सुर साधना करने लगी है। रुपाई ने गाड़ी रोकने के लिए कहा,‘ जरा माँ से पूछ लो।’
मैं ने कहा,‘फिलहाल तो वो कुंभकर्ण की मौसी बनी बैठी हैं।’
‘नहीं। मैं कहाँ सो रही हूँ ?’तुरंत नारी शक्ति का प्रतिवाद।
‘बिलकुल नहीं।’मेरा उवाच,‘वो कहाँ सो रही हैं? उनकी नाक तो कीर्तन कर रही है, बस। हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे!’
रास्ते में पोर्ट होप ऑनरूट में गाड़ी थमी। रास्ते में जामाता बार बार पूछ रहा था, ‘पापा को वॉश रूम तो नहीं जाना है ? तो कहीं रुक जाऊँ ?’
कहीं का मतलब रास्ते के किनारे नहीं, भाई। क्या मुझे जेल भिजवाना है? रुपाई किसी अॅानरूट पर रोकने की बात कर रहा है।
मैं रास्ते भर ना ना करता रहा। कोई जरूरत नहीं है। अगला ऑनरूट कितनी दूर है? वगैरह। मगर उसने जब सचमुच एक ऑनरूट रेस्तोराँ पर रोका तो लगा सीट बेल्ट तोड़ कर निकल भागूँ। चरमोत्कर्ष पर थी मेरी व्याकुलता। भार्या उबलती रही,‘बेचारा तो बार बार पूछ रहा था। तब बहुत शरीफ बन रहे थे। छिः। बाहर निकल कर कोई ऐसा करता है भला ?’
अरे ससुर सुता, तुम क्या जानो मर्दों को किस तरह ‘पौरूष-कर’ यानी प्रोस्टेट का टैक्स चुकाना पड़ता है ? हाँ, तो सीट बेल्ट लगाना यहाँ जरूरी है (शहरे बनारस में उसे कउन माई का लाल लगाता है?), मगर ऐसी आपात स्थिति उत्पन्न होने पर बड़ी मुसीबत होती है। लगता है सारे जंजीरों को तोड़ कर बाहर निकल पड़ूँ ……..
पता नहीं क्यों पहले से उतनी ताकीद महसूस नहीं कर रहा था। मगर कार पार्क करते करते मुझे लगा मैं दरवाजा खोलकर छलाँग लगा लूँ। उतरते ही मैं दौड़ा वाशरूम की तरफ। भार्या लगी डाँटने,‘ तब से रुपाई पूछ रहा है कि बीच में कहीं रोक लूँ, तब नहीं कह सकते थे? यह क्या बात है ?’
रास्ते के और कुछ दृश्यों का अवलोकन करें –
हम लोग करीब तीन सौ कि.मी. से अधिक हाईवे पर चल चुके हैं। न जाते समय, न आते समय एक भी दुर्घटनाग्रस्त वाहन नजर आया। ऐसे तो यहाँ वैसे एक्सिडेंट्स होते नहीं हैं, पर ज्यों होता है, तुरंत लोग उसकी पूरी व्यवस्था कर लेते हैं। घायलों को कराहने के लिए भगवान भरोसे छोड़ नहीं दिया जाता। बाकी लोगों को डराने के लिए कार की अस्थि को वहीं छोड़ नहीं दी जाती। और बनारस से इलाहाबाद या रेनुसागर ही चले जाइये न, रास्ते में ऐसे ऐसे रोंगटे खड़े करनेवाले दृश्य होंगे कि लगता है कार वार छोड़ कर भाग कर वापस घर पहुँच जाऊँ।
चलते चलते जरा सर्वाधिक प्रधान मंत्रिओं को चुन कर भेजने वाले ऊँचे प्रदेश की बदहाल सड़कों के बारे में अमर उजाला(18.9.15.) की सूचना देखिए :-यातायात नियमों की अवहेलना से नहीं, बल्कि सड़कों की खराब बनावट और गड्ढे के कारण पिछले वर्ष देश में 11.398 से ज्यादा लोगों की मौतें हुईं। इनमें सर्वाधिक हमारे प्रदेश की ‘मौत की राहों‘ पर – 4.455।
बगल से एक भारी भरकम गाड़ी में प्लेन का पंख लाद कर ले जा रहे हैं। उसके आगे पीछे दो एसकर्ट गाड़ी भी चल रही हैं,‘साहबजान, मेहरबान, होशियार सावधान! इस लेन में कत्तई न आयें। वरना -!’
हमरी न मानो सईयां, सिपहिया से पूछो ……….
किंग्सटन लौटते ही हम तीनों को ऊपर पहुँचा कर रुपाई बिन चाय पिये दौड़ा कार वापस करने, वरना एक और दिन की दक्षिणा लग जायेगी। लिफ्ट की दीवार पर मैं ने पहले भी ख्याल किया था कि लिखा है – भार वाहन की अधिकतम क्षमता 907 के.जी. या दस आदमियों के लिए। यानी यहाँ सरकारी हिसाब से लोगों के औसत वजन नब्बे के.जी. होता होगा। फिर भी राह चलते यहाँ कोई किसी की ओर तिरछी निगाह से देखता तक नहीं,‘कौने चक्की का आटा खाला?’ वजनदार महोदय एवं महोदया तो बहुत दृश्यमान होते हैं। चाहे राजमार्ग पर, चाहे मॉल में।
और एक सत्य कथा सुन लीजिए। (अमर उजाला. 5.9.15. से) एक वजनदार दम्पति की कहानी। दोनों की शादी के समय स्टीव का वजन 203 के.जी. रहा। और दुलहिन का 152। वे ठीक से खड़े भी नहीं हो सकते थे। शादी के स्टेज से तो स्टीव गिर भी गया था। फिर भी दोनों की कोशिशे रंग लाईं। महीनों वर्जिश के बाद स्टीव का वजन 76 के.जी. कम हुआ, और मिशेल का 63 केजी.। हे वर, हे वधू, तुम दोनों को हमारी शुभ कामनायें ! तहे दिल से। तुम्हारा वजन बेशक कम हो, पर तुम्हारी मोहब्बत वजनदार हो ! मे गॉड हेल्प यू माई फ्रेंडस्!
© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी
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