प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “जिनकों हमने था चलना सिखाया…”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 75 ☆ गजल – जिनकों हमने था चलना सिखाया… ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
है हवा कुछ जमाने की ऐसी, लोग मन की छुपाने लगे हैं।
दिल में तो बात कुछ और ही है, लब पै कुछ और बताने लगे हैं।
ये जमाने की खूबी नहीं तो और कोई बतायें कि क्या है ?
जिसको छूना भी था पहले मुश्किल, लोग उसमें नहाने लगे हैं।
कौन अपना है या है पराया, दुनियाँ को ये बताना है मुश्किल
जिनको पहले न देखा, न जाना, अब वो अपने कहाने लगे हैं।
जब से उनको है बागों में देखा, फूल सा मकहते मुस्कुराते
रातरानी की खुशबू से मन के दरीचे महमहाने लगे हैं।
बालों की घनघटा को हटा के चाँद ने झुक के मुझकों निहारा
डर से शायद नजर लग न जाये, वे भी नजरें चुराने लगे हैं।
रंग बदलती ’विदग्ध’ ऐसा दुनियाँ कुछ भी कहना समझना है मुश्किल
जिनकों हमने था चलना सिखाया, अब से हमको चलाने लगे हैं।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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