श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ कथा-कहानी  ☆ स्साला ये कौन मर गया…? ☆  श्री कमलेश भारतीय ☆

(आदरणीय श्री कमलेश भारतीय जी की यह कहानी कथा मित्र पत्रिका के 1978 के अंक में संवेदनशून्य शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस कथा को श्री कमलेश भारतीय जी ने अपने पाठकों के लिए पुनर्सृजित कर प्रस्तुत की है। कृपया आत्मसात करें।)

मैं खासा बोर हो रहा था और बैठे बैठे अपने ही बोझ तले दबा जा रहा था।

वे दोनों मेरी इस बेचैनी और ऊब से परे, बिल्कुल अनजान बड़े मजे में खिलखिला रहे थे, ठहाके लगा रहे थे। सिगरेट बुझ जाने पर तुरंत दूसरी सिगरेट सुलगा लेते थे। न बातों का सिलसिला खत्म हो रहा था और न ही सिगरेट पीने का। वे एक सिगरेट खत्म होने पर उसे बुझा कर दूसरी सिगरेट जला कर फिर बातों का सिरा पकड़ लेते और खिलखिलाने लगते। मेरा वहां होना ही वे लगभग भूल चुके थे। उन्हें अपने किस्से कहानियों से ही फुर्सत नहीं थी। मैं उन्हें अपनी मौजूदगी याद दिलाने के लिए बीच बीच में खांसता भी रहा और बरामदे के चक्कर भी लगा आया, कुर्सी बदल बदल कर भी देख ली लेकिन वे मेरी ओर से उतने ही बेफिक्र होते गये, होते चले गये। उतने ही अपने में मग्न होते चले गये।

उनकी बातों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। बल्कि उनकी हंसी में साथ देना भी मैं मूर्खता ही समझता था। यह भी नहीं कि उनकी बातें गूढ़ रहस्यों से भरी थीं या मेरी समझ से परे थीं। ये एकदम बेकार बातें थीं। मुझे लगा कि उनकी बातों का एक ही सार और एक ही केंद्र है, इतना ही ज्ञान है और एक ही विषय है -शराब। वे लगातार शराब के बारे में जुगाली कर रहे थे। एकदम पुरानी बातें। मुझे उनकी हंसी पर शर्म आ रही थी कि भला इन बातों को भी इतना खींचा जा सकता है? यह भी कोई इतनी दूर तक हंसने की बात है? वे चाहते तो शराब के बारे में अच्छा खासा शोध प्रस्तुत कर सकते थे। वे कुरेद कुरेद कर ऐसी ऐसी बातें, दुहरा रहे थे कि मुझे उनके सुख से दुख हो रहा था। मैं हैरान हो रहा था कि मेरा साथी जिस काम के लिए अपने इस पुराने दोस्त से मिलने आया है, उस काम को तो एकदम भूल ही गया है। अब इनके व्यवहार से लग रहा था, जिस काम के लिए आये हैं, उसके लिए इतना बखेड़ा करने की जरूरत ही क्या थी? शादी के लिए एक बस करनी थी और उनका दोस्त बस कम्पनी में काम करता था। बस। इतना सा काम और इतना बखेड़ा जैसे ब्रह्मांड का कोई बड़ा मसला हल करने में लगे हों। ऐसे जिंदगी कैसे चलेगा मेरी? वाह रे गोबर गणेश। चार दिनों में शादी हो जायेगी तो भी इसी तरह ढुलमुल किस्म के फैसले लेते रहे तो हो चुका गुजारा। कैसे निभेगी? घरवाली जान को रोयेगी और जीने का कोई मजा नहीं आयेगा।

मात्र इतना ही काम था -ब्याह शादी के लिए हम बस बुक करवाने घर से चले थे। वैसे तो किराया इधर उधर से पूछ कर पता लगा लिया था। लगभग एक समान था। किसी प्रकार की रियायत की गुंजाइश नहीं दिखती थी। फिर भी एक भोली उम्मीद लेकर मैं अपने साथी के साथ आया था तो इस कारण कि इनकी आढ़त की दुकान का हिस्सेदार मोटर कम्पनी में भी हिस्सेदार था। कम्पनी का डायरेक्टर उनका रिश्तेदार है। आपस में गहरा प्यार है। शायद कह सुन कर चिट्ठी से सिफारिश मान कर कुछ सौ रुपये की छूट हो जाये। आने जाने का खर्च निकाल कर भी कुछ बचत हो जाये। बस। यही एक भोली उम्मीद थी। आखिर कुछ तो बचेगा ही। मुफ्त की सैर ही समझ लो और अपने पुराने दोस्त से मिल लेने की खुशी। इसी के चलते मेरे दूर के चाचा किरोड़ी मान गये थे।

हम सुबह नहा धोकर ; थोड़ा नाश्ता कर चल पड़े थे। मैंने सोचा था कि हम सीधे शहर पहुंच कर मोटर कम्पनी के ऑफिस जायेंगे। बात पक्की करके रसीद लेकर बाद में घूमते फिरते रहेंगे। सारा दिन हमारे हाथ में होगा और कुछ दूसरे काम भी निपटा लेंगे। इस तरह काम का काम हो जायेगा और मजे का मजा। पर क्या मालूम था कि सब कुछ उल्टा होगा।

छावनी निकट आते ही मेरे चाचा किरोड़ी को अपने इस दोस्त की बेतरह याद सताने लगी और चंद मिनट मिलने की बात कह कर आगे चलने की पेशकश से मुझे बीच रास्ते उतार कर यहां घसीट कर ले आए थे। इस तरह एक गलत शुरूआत हुई थी जो ठीक होने की बजाय गलत दर गलत होती चली गयी।

महीने का आखिरी दिन था और कम्पनी में अकाउंटेंट होने के चलते वह महाशय बहुत व्यस्त दीख रहे थे। पे बिलों से घिरे पड़े थे। ऐश ट्रे पर बेकार सुलगती, धुआं उड़ाती उनकी सिगरेट उनकी व्यस्तता की सूचना देने के लिए काफी थी। पर मेरे किरोड़ी चाचा की पुकार सुन कर वे सारा हिसाब किताब भूल कर, बीच में ही सारा कामकाज छोड़कर स्वागत् के लिए कुर्सी से भागकर दरवाजे तक चले आए थे। बड़े रौब से चपरासी को आवाज लगाई थी और चाय लाने का हुक्म सुना दिया था। यहीं तक मुझे सब बहुत अच्छा लगा था और किरोड़ी चाचा की दोस्ती पर गर्व हुआ था। एक प्रकार से मैं ताजगी अनुभव  कर रहा था। इस तरह चाय की चुस्कियों में भी पूरा शराब जैसा मजा आ रहा था। लेकिन चाय खत्म हो जाने के बाद भी उनकी बातों का सिलसिला खत्म होता दिखाई न दिया तब मैं बेचैन हो उठा।  किरोड़ी चाचा को याद दिलाने के बाद भी वे कहने लगे’चलते हैं यार’ और वे फिर अपनी बातों के रौ में बह निकलते। उनकी बातों का सिलसिला टूटता दिखाई न देने पर मैं बेचैन हो उठा। इस तरह कि मेरी मौजूदगी का उन्हें ख्याल तक न रहा हो। बीच में झल्ला कर चाचा किरोड़ी के दोस्त ने फोन उठाया और बस कम्पनी के दफ्तर मिला लिया। उनकी किस्मत अच्छी निकली कि डायरेक्टर वहां आया न था अभी। बताया गया कि उनके चार बजे से पहले आने की उम्मीद भी नहीं है। इसके बाद तो जैसे गप्पें मारने का जैसे पूरा हक उन्हें मिल गया हो। वे मुझे नजरअंदाज कर जुट गये थे घर परिवार का हाल चाल जानने और फिर शराब के बारे में अपने अथाह ज्ञान का बखान करने। मैं एक तरफ बैठा अपने ही समय को इस तरह बर्बाद होते चले जाने के अहसास से बुरी तरह खीझ रहा था मन ही मन। और कर भी क्या सकता था?

बीच में एक बार उनका सिलसिला गड़बड़ाया था। वे एक पल के लिए रुके थे। चपरासी आया था और बता गया था कि साहब यहां नहीं हैं और कि कई दिनों से बीमार चला आ रहा दफ्तर का कोई चपरासी दम तोड़ गया है।

चपरासी के जाने के बाद उन्होंने बातों का सिलसिला अपनी अपनी तरफ थाम लिया था। जैसे उस बिछुड़ गयी आत्मा की शांति के लिए भगवान् से प्रार्थना कर रहे हों।  मूक,,,दो मिनट का मौन और फिर वहीं से इस तरह चालू हो गये मानो कुछ हुआ ही न हो। मानो अखबार के किसी कोने में किसी दूर के आदमी के मरने की मामूली सी खबर आई हो और अखबार को बासी समझकर फेंक दिया हो। बिल्कुल ऐसे ही वे दोबारा अपनी बातों में खो गये।

मैं बरामदे में से होता हुआ सामने जहां कुछ लोग बैठे थे वहां तक चला आया। वे बाबू उसी दफ्तर के थे और उस अनाम चपरासी की मौत पर दुख व्यक्त कर रहे थे। बड़े साहब नही थे तो क्या अकाउंटेंट को शोक सभा नहीं रखनी चाहिए। इस पर बात हो रही थी। अनाम चपरासी के सम्मान मे इतना तो होना ही चाहिए था। यदि साहब के बिना दफ्तर नहीं चलता तो क्या चपरासी के बिना चलता है? सारे कर्मचारी लाॅन के पेड़ की छाया में इकट्ठे हो गये। सबके सब रोनी सूरत बनाये खड़े थे। सबके सब उसके न होने के दुख को कंधों पर उठाये हुए थे। इसलिए सबके कंधे झुके हुए थे। मुर्दा चेहरे उनके भावों को बयान कर रहे थे।

मैं जब तक इस तरह के माहौल के बीच समय काट कर लौटा तब तक वे शाम को रंगीन बनाने का प्रोग्राम बना चुके थे। अकाउंटेंट मेरे किरोड़ी चाचा को बता रहा था कि छावनी की कैंटीन है और सब तरह की चीज मिल जाती है और वह भी कम रेट पर। यही तो सुख है। अव्वल तो दफ्तर के ही किसी आदमी से मिल जायेगी न भी मिली तो कैंटीन से कंट्रोल रेट पर काफी सस्ते में मिल जायेगी। मैं बंदोबस्त कर लूंगा। तुम बैठो तो सही। मैं अभी गया, अभी आया।

इस तरह वह बंदोबस्त करने एक कमरे से दूसरे कमरे तक, दूसरे से तीसरे कमरे तक चल कर सारा दफ्तर छान आया पर उसकी बदकिस्मती कि किसी ने माल तो दिया ही नहीं ऊपर से लानतें भी खूब मारीं कि हम तो चपरासी की मौत और उसके छोटे छोटे बच्चों और अधखड़ बीबी के भविष्य को लेकर परेशान हैं और तुम हो कि सस्ती शराब खोज रहे हो। शर्म आनी चाहिए। यही बात आकर अकाउंटेंट ने किरोड़ी चाचा को बताई और गुस्से में आकर कहा और फिर पे बिलों को परे हटाते हुए जी भर कर सबको गालियां दीं। एक एक को देख लूंगा। अब लो स्सालो चैक…कहां से लोगे? इतना अफसोस कर रहे हैं जैसे साला इनका कोई सगा मर गया हो।

चाचा किरोड़ी ने कहा कि कोई बात नहीं। रहने दो यार। किसी दूसरे वक्त पिला देना। फिर आ जाऊंगा किसी दिन प्रोग्राम बना कर।

इससे अकाउंटेंट और भी बिफर गया और बोला कि नहीं, तुम रोज़ रोज़ थोड़े आओगे यार। कहां तुम आओगे? आज पता नहीं किधर से मेरा ख्याल आ गया और चले आए। इस तरह खाली नहीं जाने दूंगा दोस्त। सब की ऐसी की तैसी। मैं अभी मरा नहीं।

फिर मेरी ओर देखा और कहने लगे कि दोस्त, तुम्हारा काम जरूर होगा। हर हाल में होगा। आज न भी हुआ तो क्या। मुझे पैसे दे जाना। मैं कल सुबह रसीद बनवा दूंगा। मैं बड़े काम का आदमी हूं। क्या करूं? अपने मुंह से अपनी तारीफ करनी पड़ रही है।

मुझे अपने तौर पर शांत समझ कर उसने गला फाड़कर चपरासी को आवाज लगाई। उसके आते ही कुछ रुपये उसके हाथ में देकर हुक्म दिया कि कहीं से भी लेकर हाजिर हो जाओ, पूरी दो बोतल। न लेकर आया तो तेरी खैर नहीं।

चपरासी ने इंकार की सूरत बनाई ही थी कि डांट दिया-न सुनने के मूड में नहीं हूं बिल्कुल भी। भागो स्साले। अभी पिछला बिल निकाल कर फाड़ दूंगा।

चपरासी ने अकाउंटेंट के हुकुम की तामील तब की जब दफ्तर बंद होने का समय हो गया था और सभी चौथे दर्जे के कर्मचारी उसी एक की राह देख रहे थे। वह आया और माल अकाउंटेंट को सुपुर्द कर जैसे ही चलने को हुआ वैसे ही आवाज आई कि हमें छोड़कर नहीं आएगा?

-कहां साहब?

-अड्डे पे और कहां?

-इतनी दूर?

-क्यों कोई तकलीफ है?

-नहीं तो पर हम सब उस चपरासी के घर जा रहे हैं एकसाथ शोक जताने। सब मेरी राह देख रहे थे।

-मेरे दोस्त आए हैं और तुझे मातमपुर्सी की पड़ी है? आज तो जश्न का दिन है। यार, बाल  बार थोड़े  मिलते हैं?

-साहब…

-मैं कुछ नहीं सुनूंगा। चल फूट। जल्दी से साइकिल निकाल कर ला और साहब को बिठा पीछे। फिर चलें। आहा ! आज तो मज़ा आ जायेगा। कसम से !

वह साइकिल लेकर आया तो बाकी साथी हाथ जोड़ने आए -इसे छुट्टी दे देते सरकार…

-भागो स्साले ! मजा खराब करने आ जाते हैं। कोई जरूरी है इतनी शाम अफसोस करने जाना? और आप लोग जा तो रहे हो। फिर इसकी क्या जरूरत? चल बे, बिठा इस साहब को पीछे और मार पैडल… 

इस तरह हम अड्डे पहुंच गये। वैसा ही अड्डा जैसा शराब पीने वालों का होता है। जगह जगह अंडे के छिलके, निचोड़ी हुई हड्डियां, मछली की सीखें और तरह तरह की बदबू। एक अजीब सा माहौल जैसे कोई आदमगुफा,,,हल्की हल्की रोशनी और शराब के पैग,, 

-मालिक मैं जाऊं क्या?

शायद यह उसकी आखिरी कोशिश थी। कहते हैं बड़ा पुण्य होता है किसी की अर्थी के साथ श्मशान तक जाना…

-अबे क्या बकबक लगा रखी है? तेरी किस्मत में दो बूंद पीनी लिखी है तो पीता जा। इतनी मेहनत की है तूने। पी ले। ला प्याला ले आ अपना। इससे बड़ा कोई पुण्य है क्या? मजे करो। ऐश करो। और है ही क्या इस दुनिया में। क्या ले जाना है?

खींच के उसे भी गिलास थमा दिया।

फिर जाम से जाम टकराते रहे और खाली होते रहे…भरे जाते रहे… 

अंधेरा गहरा होता गया। नशा भी चढ़ा और चढ़ता गया। वहां बैठे बैठे मुझे लगा कि ऐसे अंधेरे में, ऐसे नशे में,,,किसको खबर है कि कौन मर गया है…सचमुच किसे पता चलता है कि कौन मर गया है…?

©  श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments