(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक विचारणीय व्यंग्य सेवा का मेवा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 154 ☆
व्यंग्य – सेवा का मेवा
प्रभु मेरा अच्छा मित्र था. पढ़ने लिखने में ज्यादा होशियार न था पर था प्रतिभाशाली. कालेज के हर आयोजन में वह हिस्सेदारी करता था. भाषण प्रतियोगिता हो. या कालेज का कोई सेवा प्रकल्प हो. बाढ़ पीड़ितो की लिये मदद के लिये कालेज के युवाओ की टोली बनाकर चंदा जुटाना हो. ठंड में वृद्धाश्रम के लिये ऊनी वस्त्र, कम्बल इत्यादि खरीदने से लेकर बांटने तक वह मित्रो की टोली के साथ सदैव आगे रहता था. उसकी इस नेतृत्व क्षमता के चलते मोहल्ले के चौराहे पर गणेशोत्सव. दुर्गोत्सव. होली के सार्वजनिक आयोजनो में धीरे धीरे स्वतः ही उसका वर्चस्व बनता गया. प्रभु जहां भी. जिस किसी आयोजन के लिये अपने दल बल के साथ. छपी हुई रसीद बुक के साथ चंदा लेने निकलता. वह आशा से अधिक ही धन एकत्रित कर लाता. चंदा देने वालो को कार्यक्रम में पधारने का निमंत्रण. आयोजन के बाद उन तक प्रसाद पहुंचाना. कार्यक्रम में चंदा देने वालो के परिवार से किसी सदस्य के आने पर उन्हें विशिष्ट महत्व देने की कला के चलते लोग उससे प्रसन्न रहते. अखबारो में कार्यक्रम की रिपोर्टिंग में भी दान दाताओ का नाम प्रमुखता से छपवा कर वह दान दाताओ का किंचित आभार व्यक्त करना न भूलता था. उसकी लोगों से संबंध बनाने की योग्यता असाधारण थी.कार्यक्रम के बाद बचे हुये चंदे से पार्टी करने से उसे जरा भी गुरेज न था. ऐसी पार्टियो में वह मित्रों को भी बुलाया ही करता था. वह कहता यह सेवा की मेवा है. पढ़ने में वह एवरेज ही रहा होगा पर परीक्षा में येन केन प्रकारेण उसे ठीक ठाक नम्बर मिल ही जाते थे.
समय पंख लगाकर उड़ता गया. कालेज की शिक्षा पूरी कर सब अपनी अपनी जिंदगी की दौड़ में भाग लिये. किसी को कहीं नौकरी मिल गई तो किसी को कहीं. मित्रों के विवाह हो गये. जब तब दीपावली आदि त्यौहारो की छुट्टियों में मित्र कभी शहर लौटते तो जो पुराने साथी मिलते उनसे बाकी सबके हाल चाल पता होते. ऐसे ही कभी पता चला कि प्रभु की कहीं भी नौकरी नही लग सकी थी पर वह शहर छोड़कर जो गया तो कभी वापस ही नही लौटा. न ही किसी को कभी उसके विषय में कोई जानकारी मिल सकी कि वह कहां है क्या कर रहा है ?
समय की द्रुत गति हमें पछाड़ती रही. पुराने साथियो के मिलने पर किसकी कहां नौकरी लगी. कब कहां शादी हुई से बदलती हुई बातो की विषय वस्तु किसके बच्चे कहां क्या कर रहे हैं ? कौन, कब रिटायर होकर कहां बस रहा है तक आ पहुंची. फेसबुक से कई बिछुड़े साथियो को ढ़ूंढ़ निकाला गया. कालेज मेट्स के व्हाट्स अप ग्रुप बन गये.
सेवानिवृति के बाद टी वी देखने के चैनल्स बदल गये थे. फिल्मो की जगह अधिक समय आस्था और संस्कार चैनल्स के प्रवचनो में गुजरने लगा था. सेवा निवृति से एक साथ बड़ी राशि मिली. बच्चो की जबाबदारियां पूरी हो चुकी थीं. तो पत्नी ने सुझाया क्यो न कुछ पूंजी किसी सेवाश्रम को दान दी जाये. बात अच्छी लगी. टीवी पर दिखाये जा रहे प्रभुसेवा धाम का नाम. पता. बैंक खाता नम्बर नोट किया. दान राशि बैंक में जमा कर संतोष अनुभव किया. तीसरे ही दिन डाक से रसीद आ गई. साथ ही संस्थान की पत्रिका प्रभु कृपा और मिश्री के प्रसादम का पेकेट और कभी संस्थान का सेवाश्रम भ्रमण करने का प्रस्ताव भी था. मैं प्रभावित हुआ. फिर तो आये दिन किसी मधुर कण्ठी युवती का फोन आने लगा जो किसी न किसी प्रयोजन से और चंदा भेजने का आग्रह करती.
संयोगवश एक बार एक विवाह आयोजन के सिलसिले में उस महानगर जाना हुआ जहां प्रभुसेवा धाम था. सोचा चलो देख ही आयें. कि हमारे दान का किस तरह सदुपयोग हो रहा है. हमने मात्र एक फोन किया और संस्थान की गाड़ी बताये हुये समय पर हमें लेने हमारे होटल आ गई. एक सेवा दात्री युवा लड़की ने कार का दरवाजा खोल हमें बैठाया और सेवा गतिविधियो की जानकारी देती हुई हमें संस्थान तक ले आई. फिर एक अन्य सेविका हमें सेवाधाम में भर्ती मरीजो से मिलवाती हुई गुरु जी के केंद्रीय आश्रम ले आई. हम सपत्नीक प्रभावित थे और गुरूजी से मिलने के इंतजार में पंक्ति बद्ध थे.हमारानम्बर आया तो प्रभु श्री से हमारा साक्षात्कार हुआ. अरे तुम ! प्रभु श्री ने कहा. प्रभुश्री मेरे गले लग गये. उनके आस पास के सेवादार चौंके. मैं हतप्रभ हुआ. यह तो वही कालेज वाला प्रभु है !
प्रभु मुझे अपने आवास पर ले गया जिसे वह कुटिया कह रहा था. उसने बताया कि जब कालेज से निकलने पर उसे नौकरी नही मिल सकी तो वह यहां राजधानी चला आया. और यह सेवा प्रकल्प प्रारंभ किया.सरकारी अनुदान योजनाओ का लाभ मिला और एक नेता जी व एक सेठ जी के सहयोग से इस जमीन पर यह आश्रम खड़ा किया. टैक्स की छूट के लिये बड़े लोग व कार्पोरेट जगत खूब दान देते हैं. उस राशि को सुनियोजित तरीके सदुपयोग करके सेवा भी करता हूं और उसी में मेवा भी खाता हूं. एक ही बेटी है जिसकी शादी कर दी है और उसके लिये भी केटरेक्ट के हर आपरेशन पर शासकीय अनुदान की योजना का लाभ उठाते हुये नैना सेवा चिकित्सालय खोल दिया है. ये संस्थान अनेको युवाओ को रोजगार दे रहे हैं. जन सेवा कर रहे हैं और लोगो की परमार्थ के लिये दान देने की भावना का उपयोग करते हुये शासकीय स्वास्थ्य योजनाओ में भी सहयोग कर रहे हैं. प्रभु से बिदा लेते हुये मेरे मुंह में उसकी सेवा की मेवा की मिश्री का प्रसादम था और मैं कुछ बोलने की स्थिति में नही था.
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈