श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 136 ☆ आँखवाला ☆
लगभग डेढ़ दशक पहले की घटना है। उन दिनों केबल पर नये आरम्भ हुए एक समाचार चैनल के लिए सलाहकार संपादक की भूमिका का निर्वहन कर रहा था। दिन भर में तीन या शायद चार बार समाचार दिखाये जाते थे। चैनल प्रायोगिक चरण में था। तकनीकी सुविधाएँ भी न के बराबर थीं। चैनल का कैमरामैन इस प्रभाग विशेष की कुछ घटनाओं के विजुअल्स ले आता। शेष समाचारों के लिए स्टिल्स का आधार लेते। समाचार-वाचिका से हिन्दी का सही उच्चारण करवा पाना भी चुनौती थी। अलबत्ता असुविधाओं पर विश्वास और परिश्रम भारी पड़ रहे थे और गाड़ी चल रही थी।
एक दोपहर चैनल की गाड़ी से कार्यालय जाने के लिए निकला। कार्यालय का अधिकांश रास्ता राष्ट्रीय महामार्ग से होकर गुज़रता था। उन दिनों महामार्ग का चौड़ीकरण चल रहा था। सैकड़ों वर्ष पुराने बरगदों का संहार हो चुका था। मल्टीलेन होने चली सड़क डामर की गर्मी से 120 फीट के चौड़े पाट में मानो पिघल रही थी। अलग-अलग एजेंसियाँ अलग-अलग काम कर रही थीं। सड़क के दोनों ओर निर्माण सामग्री के ढेर पड़े थे।
इन सबके बीच ट्रैफिक का आलम नौ दिन चले अढ़ाई कोस था। हमारी गाड़ी तो ऐसी फँसी थी कि नौ दिन में नौ मीटर आगे खिसकने की संभावनाओं पर भी पहरा लगा हुआ था।
गाड़ी के थमे पहियों के बीच आँखें द्रुत गति से दृश्य का अवलोकन करने में जुट गईं। जहाँ तक देख पाता था, थमी गाड़ियों की कतारें थीं। गाड़ियों का ठहराव याने कदमों का बहाव याने पैदल चलने वालों के लिए सड़क पार करने का यह स्वर्णिम अवसर होता है। अब सड़क पर बेतहाशा भीड़ थी और हर कोई ट्रैफिक के ठहराव में जल्दी से जल्दी सड़क पार कर लेना चाहता था। विचार उठा कि ऐसी व्याकुलता यदि मनुष्य भवसागर पार करने में रखे, तदनुसार कर्म करे तो संसार क्या से क्या हो जाय !
देखता हूँ कि जहाँ हमारे गाड़ी रुकी पड़ी थी, उससे लगभग सौ मीटर दूर सड़क के दाहिने ओर एक दृष्टि दिव्यांग युगल खड़ा है। संभवत: सड़क पार कर दूसरी ओर जाना चाहता है। सोचा कि इस अफरातफरी में जब आँख वालों के लिए सड़क पार करना कठिन हो, इस जोड़े के लिए टेढ़ी खीर नहीं बल्कि लगभग सभी असंभव ही है।
तथापि मनुष्य का सोचा कब होता है, विधाता जब चाहे, सब होता है। दाहिनी ओर गली से निकल कर एक स्कूल वैन सड़क किनारे आकर रुकी। छठी या सातवीं में पढ़ने वाला एक बच्चा अपना बस्ता हाथ में थामे वैन से उतरा। उसने उस युगल को निहारा, अपने बस्ते को दोनों कंधों पर टांका। सीधे युगल के बीच पहुँचा, दोनों का एक-एक हाथ थामा और निकल पड़ा भीड़ में सड़क पार कराने। वासुदेव ने टोकरी में लिटाकर ज्यों कन्हैया को सुरक्षित रूप से यमुना पार कराई थी, कुछ वैसे ही यह बालक इस युगल को सड़क पार करा दूसरी ओर ले आया। आश्चर्य का चरम अभी शेष था। युगल को सड़क पार करा बालक पीछे घूमा और सड़क पार कर फिर दूसरी और आ गया। चित्र एकदम स्पष्ट था, बच्चा दाहिनी ओर ही रहता था। केवल युगल को पार करने के लिए बाईं ओर गया था। विडंबना थी कि आँख के कैमरे ने जो कुछ कैप्चर कर किया था, उसे चैनल पर दिखाने के लिए कोई डिजी कैमरा उस समय हमारे पास नहीं था। थोड़ा सा ट्रैफिक खुला, हमारी गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। मेरे मस्तिष्क में सांझ बुलेटिन का मुख्य समाचार इलेस्ट्रेशन और शीर्षक के साथ तैयार था। शीर्षक था, ‘आँख वाला।’
इस संस्मरण को साझा करने का संदर्भ भी स्पष्ट कर दूँ। वस्तुत: समाज में जो दिखता है, जो घटता है उसे दिखाने का माध्यम भर है ‘संजय उवाच।’ दृश्य देखने के बाद व्यक्ति या समाज, उस बालक की तरह क्रिया कर सके तो अत्युत्तम। चिंतन से वाया चेतना, क्रियाशीलता ही उवाच का लक्ष्य है।
विशेष उल्लेखनीय यह कि साप्ताहिक ‘संजय उवाच’ का यह शतकीय आलेख है। इस स्तम्भ के सौ आलेख पूरे होना नतमस्तक उपलब्धि है। इस उपलब्धि को ‘ई-अभिव्यक्ति’, ‘दक्षिण भारत राष्ट्रमत’, ‘दैनिक चेतना” के आदरणीय संपादकगण, प्रकाशन से जुड़ी पूरी टीम और अपने पाठकों के साथ साझा करते हुए हृदय से प्रसन्नता का अनुभव करता हूँ। आप सबका साथ, आप सबकी प्रतिक्रियाएँ, उवाच के लेखन में उत्प्रेरक का काम करती हैं। विनम्रता से विश्वास दिलाता हूँ, जब तक प्रेरणा बनी रहेगी, लेखनी चलती रहेगी।…अस्तु!
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
‘संजय उवाच ‘ आँखवाला प्रकाशननार्थ बधाई – यह उवाच अपने उवाच के माध्यम से वाचकों को एक ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान करेगा जो जनमानस को योगदान के लिए प्रेरित करेगा , बड़े- बूढों की सहायता करने को प्रेरित करेगा ,असहायों की सहायता करेगा – अनुकरणीय लेखन – साधुवाद