श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 124 ☆
☆ आलेख – छाया का मानव जीवन तथा प्राकृतिक पर्यावरण पर प्रभाव ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
यूँ तो छाया शब्द व्याकरण के अनुसार शब्द और मात्रा द्वारा निर्मित है तथा परछाई, प्रतिकृति, प्रतिबिंब, प्रतिमूर्ति और बिंब छांव उसके पर्याय है, जो अपने आप में विस्तृत अर्थ समेटे हुए है जिसके अलग अलग निहितार्थ भाव तथा प्रभाव दृष्टि गोचर होते रहते हैं। उसके स्थान परिस्थिति के अनुसार उसकी उपयोगिता अलग-अलग दिखाई देती है। जैसे माँ की ममतामयी आँचल की छांव में जहां अबोध शिशु को आनंद की अनुभूति होती है, वहीं पिता की छत्रछाया में सुरक्षा की अनुभूति होती है।
वहीं बादलों की छाया तथा वृक्ष की छांव धूप से जलती धरती तथा पथिक को शीतलता का आभास कराती है। छाया चैतन्यात्मा न होते हुए भी गतिशील दिखाई देती है, जब हम गतिशील होते हैं तो साथ चलती हुई छाया भी चलती है। तथा आकृति की प्रतिकृति अथवा प्रतिबिंब बनती दिखती है। यह प्रकाश परावर्तन से भी निर्मित होती है। कभी कभी कमरे में में झूलती हुई रस्सी की छाया हमारे मन में सांप के होने का भ्रम पैदा करती है तो वहीं पर भयानक आकृति की छाया लोगों को प्रेत छाया बन डराती है। यह कोरा भ्रम भले ही हो लेकिन हमारी मनोवृत्ति पर उसका प्रभाव तो दीखता ही है।
छाया किस प्रकार पृथ्वी को गर्म होने से बचाती है वहीं उसकी अनुभूति करने के लिए किसी वृक्ष के पास धूप में खड़े होइए, तथा उसके बाद वृक्ष की छांव में जाइए, अंतर समझ में आ जाएगा। जहां धूप में थोड़ी देर में आप की त्वचा में जलन होती है वहीं वृक्ष की सघन छांव में आप घंटों बैठकर गुजार देते हैं। इसलिए छाया का मानव मन तथा जीवन प्रकृति तथा पर्यावरण पर बहुत ही गहरा असर पड़ता है। इस लिए हमें भौतिक संसाधनों पर निर्भरता कम करते हुए वृक्ष लगाने चाहिए ताकि उस वृक्ष की छांव फल फूल तथा लकड़ी का मानव सदुपयोग कर सके।
ऊं सर्वे भवन्तु सुखिन:..
के साथ आप सभी का शुभेच्छु
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
ज्ञान वर्धक लेखन भाई श्री, और छाया दार भी।
अत्यंत मार्मिक लेखन।
सादर साधुवाद आदरणीय