श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपके कांकेर पदस्थापना के दौरान प्राप्त अनुभवों एवं परिकल्पना में उपजे पात्र पर आधारित श्रृंखला “आत्मलोचन “।)
☆ कथा कहानी # 33 – आत्मलोचन– भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मनपसंद कुर्सी से आत्मलोचन जी के प्रबल आत्मविश्वास में और भी ज्यादा वृद्धि हुई और हुक्म चलाने की अदा में कुछ बेहतर पर कड़क निखार आ गया. ये कुर्सी उन्हें सिहांसन बत्तीसी की तरह अधिनायक वादी पर दिनरात एक कर लक्ष्य पाने का ज़ुनून दे रही थी और उनका इस विशिष्ट कुर्सी के प्रति प्रेम, चंद्रकलाओं की तरह दिन प्रति दिन बढ़ता जा रहा था. जिलाधीश को अक्सर किसी न किसी मीटिंग में भाग लेकर अध्यक्षता करनी पड़ती है अथवा संभागीय स्तर के उच्चाधिकारी, प्रभारी मंत्री ,सांसद, विधायकों की अध्यक्षता में आहूत बैठक में भाग लेना पड़ता है.तो जब भी बैठक की अध्यक्षता करनी होती तो बंगले से सिंहासनबत्तीसी की जुड़वां कुर्सी मीटिंग हॉल में आ जाती अन्यथा आत्मलोचन जी को उनसे ऊपर वालों की उपस्थिति में हो रही मीटिंग्स में प्रोटोकॉल के कारण बहुत अनमनेपन से सामान्य कुर्सी से ही काम चलाना पड़ता.कलेक्टर की अध्यक्षता में साप्ताहिक TL याने टाईमलिमिट मीटिंग पहले हर मंगलवार को निर्धारित थी पर जब उन्होंने पाया कि जिलास्तर के विभागीय प्रमुख अपना सप्ताहांत महानगर स्थित परिवार के साथ बिताने के बाद सोमवार को “देरआयद दुरुस्तआयद” की प्रक्रिया का पालन कर आराम से कार्यालय पहुंचते हैं तो उन्होंने TL meeting को सोमवार 11बजे से लेना प्रारंभ कर दिया. उनके बहुत सारे अधीनस्थ इससे परेशान तो हुये क्योंकि अब उन्हें हर हाल में जिला मुख्यालय में सुबह पहुंचना पड़ता था पर और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था क्योंकि वीकएंड में मुख्यालय बिना अनुमति के छोड़ने की परंपरा यहां पर भी सामान्य रूप से प्रचलन में थी. हर तिमाही रिजर्व बैंक के निर्देशानुसार होने वाली बैठक उनकी अध्यक्षता में होती थी जिसके बिंदुवार अनुवर्तन के मामले में वो बहुत कुशल और कड़क थे और पिछली मीटिंग्स में दिये गये आश्वासन पूरे नहीं होने पर false promise करने वाले अधिकारियों की कड़क समझाइश भी की जाती थी भले ही वह व्यक्ति उनके अधीन हो या न हो.उनका यह सोचना था कि जिले की प्रगति के साथ अनुशासन बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी है और हर मीटिंग्स के लक्ष्य शत-प्रतिशत पूरा करना उपस्थित अधिकारियों का कर्तव्य.इस बारे में उनके हर कोआर्डिनेटर को स्पष्ट निर्देश थे कि मीटिंग्स अटैंड करनेवाले लोग अधिकारसंपन्न हों,कई बार प्राक्सी लोगों को आने पर मीटिंग्स से वापस भेजने की परिपाटी उनके कार्यकाल में ही रिवाज में आई.
आत्मलोचन जी अविवाहित थे और अपने माता पिता के साथ अपने बंगले में सामान्य पर गरीबी मुक्त वैभवशाली जीवन व्यतीत कर रहे थे जो उनकी प्रतिभा, निष्ठा, परिश्रम और सौभाग्य के कारण उनका हक था पर उनके शिक्षक पिता कभी कभी अपने पुत्र के व्यवहार में संवेदनहीनता, घमंड, निर्दयता की झलक पाकर चिंतित हो जाते थे. पुत्र की असीम उपलब्धियों ने , पिता से पुत्र को सलाह देने या कुछ सुधार करने की पात्रता छीन ली थी और पितृत्व की शक्ति का स्थान, इन अवगुणों को नजरअंदाज करने की निर्बलता लेती जा रही थी.
पुत्र इस बात पर आश्वस्त थे कि पिता ने उसके ऊपर जो भी इन्वेस्ट किया था उससे कई गुना सम्मानित और वैभवशाली जीवन वह अपने पिता को लौटा चुका है तो अब पिताजी को अपना शेष जीवन आराम से अपनी रुचियों (हॉबीज़) के साथ बिताना है और कम से कम पुत्र के जीवन में अब कोई दखलंदाजी करने की जगह नहीं है और आखिर हो भी क्यों और वो क्या समझें कि कलेक्टर का दायित्व कितना बड़ा होता है.
पिता और पुत्र के बीच संवाद की एक ही स्थिति थी “संवादहीनता” जो धीरे धीरे कब अपना स्थान बनाती गई, दोनों को पता नहीं चल पाया. जन्म केे रिश्तों का अपनापन, अधिकार और गरमाहट कब ठंडी पड़ गई ,एहसास बहुत धीमे धीमे हुआ पर आखिर हो ही गया और पिता और पुत्र एक ही बंगले में एक दूसरे के अस्तित्व को अनुपस्थिति के समान उपस्थिति से भरा समय समझते हुये गुजारते जा रहे थे.
क्रमशः…
© अरुण श्रीवास्तव
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