॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 18 (46 – 53) ॥ ☆

रघुवंश सर्ग : -18

जिस आयु में अक्षर ज्ञान भी विधिवत पूरा कोई नहीं पाता।

उस आयु में भी सुन सीख बड़ों से नीति ‘सुदर्शन’ था गाता।।46।।

 

बालक के लघु वक्ष मे स्थान कम देख करते हुये प्रौढ़ता की प्रतीक्षा।

लक्ष्मी लजाती सी छत्र रूप में ही छू उसकों करती थी निज पूर्ण इच्छा।।47।।

 

भुजायें सुदर्शन की थी नहीं धुर सम नहीं धनुष संधान की उनमें क्षमता।

न ही असि उठाया था उसने कभी किन्तु थी राज्य-रक्षा की पूरी सबलता।।48।।

 

समय साथ केवल न ही देह के अंग, विकसित हुये वरन गुण, वृद्धि पाये।

सब शौर्य, औदार्य, कुल-गुण जो थे सूक्ष्म, भी हुये विकसित प्रजा मन को भाये।।49।।

 

पूर्व जन्म में जैसे देखी गई सी सुपरिचित सभी नीति वह समझ पाया।

सुगम बनाते गुरूजनों का कठिन कार्य अर्थ, धर्म, दण्ड, नीतियाँ सीख पाया।।50।।

 

उत्तरार्ध को तान, कस केश, मुड़ बाँयें, जब खींचता कान तक बाण था वो।

अभ्यास करते धनुष साधने का बहुत प्यारा लगता था तब दर्शकों को।।51।।

 

किया प्राप्त यौवन सुदर्शन ने फिर जो कि, प्रमदाओं को मधुर अमृत सदृश है।

जो कल्पतरू का महकता हुआ पुष्प, अनुराग-पल्लव छलकता सा रस है।।52।।

 

सुन्दर अधिक स्वप्न-सुन्दरियों से भी, आनीत सविचों से धार्मिक विद्या से।

धरित्री औ’ धनश्री की बनने सपप्नी, वरण किया कई ने उसे तब प्रथा से।।53।।

अठारहवाँ  सर्ग समाप्त

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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