श्री हरभगवान चावला
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।)
आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ।)
☆ लघुकथा – बड़ी नदी, छोटी नदी ☆ श्री हरभगवान चावला ☆
“आज तो बहुत मुश्किल से पहुँच पाई हूँ मैं तुम्हारे पास, एक निगोड़े पत्थर ने मेरा रास्ता रोक दिया था।” छोटी नदी ने बड़ी नदी में मिलते हुए कहा।
“कितनी कमज़ोर हो तुम! एक मामूली पत्थर तुम्हारा रास्ता रोक देता है। मुझे देखो, कोई पत्थर आए तो सही मेरे सामने, अपने बहाव में बहाकर ऐसी जगह छोड़ती हूँ, जहाँ वह ताउम्र धूप में जलता रहता है।” बड़ी नदी बोली।
“तंज़ मत करो बहन। देखो न, पूरी ताक़त से पत्थर से लड़ती हुई मैं तुम्हारे पास पहुँची हूँ, आधी-अधूरी ही सही।”
“आधी-अधूरी हो या पूरी – तुम न भी आओ तो क्या फ़र्क़ पड़ता है मुझे? तुम से पहले बीसियों तुम जैसी छोटी और ओछी नदियाँ मुझमें मिलती हैं। हर रोज़ कोई न कोई नदी मुझे तुम जैसी ही व्यथा सुनाने लगती है। तंग आ चुकी हूँ मैं, कान पक गए हैं मेरे!”
“ऐसा न कहो। हमारा मिलन तो आत्माओं के मिलन जैसा है। कितना पवित्र उद्देश्य है इस मिलन का। हम सब मिलकर लाखों, करोड़ों लोगों की प्यास बुझाती हैं। इनमें कितने साधनहीन, लाचार और ग़रीब लोग शामिल हैं। नाम बेशक तुम्हारा ही होता है, पर सहयोग और समर्थन तो हमारा भी है।”
“हुँह, तुम्हारा सहयोग और समर्थन?”
“हाँ बहन। अपने उद्गम स्थल पर तो तुम हम जैसी ही हो। हम जैसी छोटी-छोटी नदियाँ तुम में मिलती जाती हैं और तुम बड़ी होती जाती हो।”
“ओह, तुम कहना यह चाहती हो कि मेरा वजूद तुम जैसी छोटी नदियों की वजह से है। तुम छोटी नदियों और छोटे लोगों की यही दिक़्क़त है। तुम समझते हो कि कोई बड़ा है तो तुम्हारी वजह से। सुनो, अगर तुम जैसी नदियों का विलय मुझमें नहीं होता तो अनदेखी रह जातीं तुम, साँप की तरह पत्थरों से लिपटी-लिपटी पत्थरों में ही खो जातीं। मेरी वजह से तुम सार्थक होती हो, तुम्हारी वजह से मैं नहीं।”
“इतना अहंकार अच्छा नहीं बहन। मुझे कोई श्रेय नहीं लेना, पर छोटी से छोटी चीज़ का भी मूल्य होता है। सृष्टि सबके सहयोग से ही क़ायम है।”
“अच्छा! तो ऐसा करो, वापस ले लो अपना सहयोग। देखूँ तो सृष्टि पर क्या असर होता है?”
छोटी नदियाँ विमुख हो गईं। अगले दिन से बड़ी नदी दुबली होने लगी। कुछ ही दिनों में नदी एक लंबे अधमरे साँप जैसी दिखने लगी, जिसके फन पर एक बड़ा पत्थर आ गिरा था और जिसकी आँखों में एक छटपटाती याचना ठहर गई थी।
© हरभगवान चावला