श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। 

आज प्रस्तुत है सुश्री ऋता सिंह जी की सद्य प्रकाशित पुस्तक “स्मृतियों की गलियों से” (संस्मरण) पर आपकी चर्चा।

? पुस्तक चर्चा – स्मृतियों की गलियों से (संस्मरण) – सुश्री ऋता सिंह  ? श्री संजय भारद्वाज ?

? अनुभव विश्व से उपजा सम्यक स्मरण – श्री संजय भारद्वाज ?

सम्यक स्मरण अर्थात संस्मरण। स्मृति के आधार पर घटना, व्यक्ति, वस्तु का वर्णन संस्मरण कहलाता है। स्मृति, अतीत के कालखंड विशेष का आँखों देखा हाल होती है। घटना, व्यक्ति, वस्तु के साक्षात्कार के बिना आँखों देखा हाल संभव नहीं है। स्वाभाविक है कि संस्मरण रोचक शैली में स्मृति को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। क्षितिज प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘स्मृतियों की गलियों से’, लेखिका के अनुभव-विश्व से उपजे ऐसे ही संस्मरणों का संग्रह है।

चित्रोपमता संस्मरण लेखन की शक्ति होती है। लेखक द्वारा जो लिखा गया है, उसका चित्र पाठक की आँख में बनना चाहिए। श्वान के एक पिल्लेे के संदर्भ में ‘भूले बिसरे दिन’ की प्रस्तुत पंक्तियाँ देखिए-‘अपनी पूँछ को पकड़ने की कोशिश में दिन में न जाने कितनी बार वह गोल-गोल घूमा करता था पर पूँछ कभी भी उसकी पकड़ में न आती। उसकी यह कोशिश किसी तपस्वी की तरह एक नियम से बनी हुई चलती रहती थी।’…‘ जाने कहाँ गए वे दिन’ में उकेरा गया यह चित्र देखिए-‘मैंने फूलझाड़ू के दो छोटे टुकड़ों को क्रॉस के रूप में रखा, काठी के एक छोर पर कपास का एक गोला बनाकर लगाया, फिर उस कपास के गोले को पिताजी की पुरानी स़फेद धोती के टुकड़े से ढका और पतली सुतली से उस झाड़ू के साथ बाँध दिया। इस तरह उसे सिर का आकार दिया गया। काजल से आँख, नाक, मुँह बनाया। इस तरह की कई गुड़ियाँ मैंने ईजाद कर डालीं।’

सत्यात्मकता या प्रामाणिकता संस्मरण का प्राण है। संस्मरण में कल्पना विन्यास वांछनीय नहीं होता। कल्पना की ओर बढ़ना अर्थात संस्मरण से दूर जाना। प्रस्तुत संग्रह में लेखिका ने संस्मरण के प्राण-तत्व को चैतन्य रखा है। ‘जब पराये ही हो जाएँ अपने’ में वर्णित घटनाक्रम का एक अंश इसकी पुष्टि करता है-‘जाते समय उस बुज़ुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडेड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।’

संस्मरण के पात्र सत्यात्मकता का लिटमस टेस्ट होते हैं। प्रस्तुत संग्रह के पात्र रोज़मर्रा के जीवन से आए हैं। इसके चलते पात्र परिचित लगते हैं और पाठक के साथ तादात्म्य स्थापित करते हैं। ‘गटरू’ जैसे चरित्र इसकी बानगी हैं।

अतीत के प्रति मनुष्य के मन में विशेष आकर्षण सदा रहता है। बकौल निदा फाज़ली, ‘मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है।’ इस खोए हुए सोना अर्थात अतीत की स्मृति के आधार पर होने वाले लेखन में आत्मीय संबंध और वैयक्तिकता की भूमिकाएँ भी महत्वपूर्ण होती हैं। ‘गुलमोहर का पेड़’ नामक संस्मरण से यह उदाहरण देखिए-‘अपने घर की खिड़की पर लोहे की सलाखों को पकड़कर फेंस के उस पार के गुलमोहर के वृक्ष को मैं अक्सर निहारा करता था। प्रतिदिन उसे देखते-देखते मेरा उससे एक अटूट संबंध-सा स्थापित हो गया था। विभिन्न छटाओं का उसका रूप मुझे बहुत भाता रहा।’ इसका उत्कर्ष भी द्रष्टव्य है-‘गुलमोहर के तने से लिपटकर खूब रोया। फिर न जाने मुझे क्या सूझा, मैंने उसके तने से कई टहनियाँ कुल्हाड़ी मारकर छाँट दी, मानो अपने भीतर का क्रोध उस पर ही व्यक्त कर रहा था।… अचानक उस पर खिला एक फूल मेरी हथेली पर आ गिरा। फूल सूखा-सा था। ठीक बाबा और माँ के बीच के टूटे, सूखे रिश्तों की तरह।’

लेखिका, शिक्षिका हैं। स्थान का वर्णन करते हुए तत्संबंधी ऐतिहासिक व अन्य जानकारियाँ पाठक तक पहुँचाना उनका मूल स्वभाव है। इस मूल का एक उदाहरण देखिए- ‘लोथल, दो हजार सात सौ साल पुराना एक बंदरगाह था। यहाँ छोटे जहाजों के द्वारा आकर व्यापार किया जाता था। यह ऐतिहासिक स्थल है जो पुरातत्व विभाग के उत्खनन द्वारा खोजा गया है।’

कथात्मकथा बनी रहे तो ही संस्मरण रोचक हो पाता है। पढ़ते समय पाठक के मन में ‘वॉट नेक्स्ट’ याने ‘आगे क्या हुआ’ का भाव प्रबलता से बना रहना चाहिए। प्रस्तुत संग्रह के अनेक संस्मरणों में कथात्मकता प्रभावी रूप से व्यक्त हुई है।

भारतीय संस्कृति कहती है, ‘मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना।’ किसी घटना के अनेक साक्षी हो सकते हैं। घटना के अवलोकन, अनुभूति और अभिव्यक्ति का प्रत्येक का तरीका अलग होता है। इन संस्मरणों की एक विशेषता यह है कि लेखिका इनके माध्यम से घटना को ज्यों का त्यों सामने रख देती हैं। स्वयं अभिव्यक्त तो होती हैं पर सामान्यत: किसी प्रकार का वैचारिक अधिष्ठान पाठकों पर थोपती नहीं। ये सारे संस्मरण मुक्तोत्तरी प्रश्नों की भाँति हैं। पाठक अपनी दृष्टि से घटना को ग्रहण करने और अपने निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए स्वतंत्र है।

इन संस्मरणों के माध्यम से विविध विषय एवं आयाम प्रकट हुए हैं। आशा की जानी चाहिए कि पाठक इन संस्मरणों को अपने जीवन के निकट अनुभव करेगा। यह अनुभव ही लेखिका की सफलता की कसौटी भी होगा।

© संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
image_print
3 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

3 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
लतिका

सभी पहलुओं पर लिखा पाठकों को प्रेरित करता आलेख। किताब पढ़ने की उत्सुकता जगाता है। हार्दिक बधाई!💐💐

Sanjay k Bhardwaj

धन्यवाद.लतिका जी।

माया कटारा

निष्पक्ष ,हर प्राणी मात्र की संवेदना को चैतन्य प्रदान करता , चराचर सृष्टि को संजीवनी प्रदान करता आलेख – पारिवारिकता का ज्वलंत उदाहरण –
हार्दिक बधाई