॥ मानस के मोती॥
☆ ॥ मानस में सूक्तियां – भाग – 2 ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
लंकाकाण्ड
फूलई फलई न बेत जदपि सुधा बरसहिं जलद।
मूरख हृदय न चेत जो गुरु मिलहिं विरंच सम।
उत्तरकाण्ड
दैहिक दैविक भौतिक तापा रामराज्य काहुंहि नहिं व्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।
परहित सरिस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
एहि तन कर फल विषय न भाई, स्वर्गऊ स्वल्प अंत दुखदाई।
रामचन्द्र के भजन बिनु जो चह पद निरबान,
ग्यानवंत अपि सो नर पसु बिनु पूंछ समान।
भगतिहिं ज्ञानहिं नहिं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।
भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानी, बिनु सत्संग न पावहिं प्राणी।
जो अति आतप व्याकुल होई, तरु छाया सुख जानेई सोई।
नारि कुमुदिनी अवध सर रघुपति विरह दिनेश
अस्त भये विगसत भईं निरखि राम राकेश।
बिधु महि पूर मयूखन्हि रवि तप जेतनेई काज।
मांगे वारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज॥
कुलिसहु चाहि कठोर अति, कोमल कुसमहि चाहि।
चित्त खगेश कि रामकर समुझि परई कहु काहि॥
बिनु सत्संग न हरिकथा, तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गये बिनु रामपद, होई न दृढ़ अनुराग॥
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
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