मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते’ ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

अर्थ है ”केवल कर्म पर ही तेरा अधिकार है यह मुहावरा विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ’‘ भगवत्ï-गीता के सुप्रसिद्ध श्लोक का एक चतुर्थांश है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को समझाने के बहाने विश्व के मानव मात्र को कर्म करने का जो  अमर संदेश दिया है, वह अनुपम लोक कल्याणकारी सिद्धान्त है। इसमें कर्म की महत्ता प्रतिपादित की गई है क्योंकि कर्म के बिना न तो नव सृजन संभव है और न सृष्टि का संचालन। कर्म न केवल जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही आवश्यक है वरन्ï दैनिक जीवन में नवसृजन, प्रसन्नता तथा आनन्द की प्राप्ति और प्रगति व विकास के लिए भी अनिवार्य है। बिना कार्य के कोई उत्पादन संभव नहीं। खेत, हल और बीज के होते हुए भी यदि कि सान श्रम पूर्वक कर्म न करे तो फसल का उत्पादन असंभव हैं। ईंट, सीमेंट, रेत आदि के होते हुए भी यदि मजदूर परिश्रम न करे तो भवन नहीं बन सकता। इसी तरह केवल इच्छा करने मात्र से कोई उपलब्धि नहीं पा सकता। हर छोटी-बड़ी इच्छा को पूरी करने के लिए प्रकृति प्रदत्त समस्त साधनों के होते हुए भी बिना कर्म किए अर्थात्ï सोच-विचार श्रम किए बिना कुछ पाया नहीं जा सकता। कर्म के द्वारा इच्छानुसार अर्जन के लिए ही ईश्वर ने प्राणियों को कर्मेन्द्रियाँ दी हैं। कर्म के द्वारा कुछ भी असंभव नहीं है। आज की बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ  मनुष्य के कठिन श्रम से किए गए कर्म के परिणाम हैं। कर्म की सृजनशीलता के आधार पर ही मनुष्य ने आज अन्तरिक्ष में उड़ान भरी है और कर्म के विश्वास पर ही कल और भी नये-नये चमत्कारों की प्राप्ति के लिये प्रयासरत है। कर्म की महानता को ही प्रतिपादित करते हुए तुलसीदास जी ने मानस में कहा है-

‘कर्म प्रधान विश्व करि राखा’-‘जो जस करिय सो तस फल चाखा॥’

इस संसार में कर्म की प्रमुखता है जो जैसा करता है वैसा ही परिणाम पाता है कर्मठता के विपरीत अकर्मण्यता को अपनाने वाले आलसी, सदा निराश और और उदास बने रहते हैं। केवल कामनाओं के स्वप्न देखते रहते हैं पर पाते कुछ नहीं। ‘दैव दैव आलसी पुकारा’ केवल भाग्य पर पूर्ण भरोसा करना उचित नहीं है। भाग्य भी उसी का साथ देता है जो कर्म करने को उद्यत होते हैं तथा कुछ पाने के लिए महत्वाकांक्षाएँ सँजोते हैं तथा श्रम करते हैं। लोक मान्य तिलक ने भी अपने ग्रंथ ‘गीता-रहस्य’ या ‘कर्म योग शास्त्र’ में कर्म और कत्र्तव्य के लिए मनुष्य को उन्मुख होने की सलाह दी है और गीता की वृहत व्याख्या में जीवन के युद्ध क्षेत्र में एक कर्मठ योद्धा की भाँति डटकर हर समस्या का सामना करने को कहा है। यही पुरुषार्थ है। संत बावरा जी महाराज ने भी कहा गीता की व्याख्या करते हुए कर्म और कर्मठता की पुरजोर वकालत की है। उन्होंने ईश्वर की उपासना और अपने कर्माे व कत्र्तव्यों की पूर्ति में लगे रहकर पूरी करने को श्रेष्ठ माना है। संसार के कर्मक्षेत्र से भागकर सन्यास लेने को श्रेयस्कर नहीं माना है।

यह तो सहज सभी के अनुभव की बात है कि कुछ न करने से बेहतर हमेशा कुछ कर्म करना ही हितकारी है क्योंकि कर्म से ही इच्छा की पूर्ति होती है। शायद इसी आशय को व्यक्त करती है यह सहज सी लोकोक्ति-”बैठे से बेगार भली।’‘ सक्रियता ही जीवन है। हाँ गीता का यह कथन और भी सार गर्भित है कि कर्म तो निरन्तर करते रहना चाहिए पर उसके फल के प्रति आशान्वित न रखकर हर कार्य करना चाहिए। व्यक्ति के हाथ में कर्म करने का अधिकार तो पूरा है और अच्छे कर्म का परिणाम भी अच्छा होता है किन्तु फिर भी फल ईश्वर के हाथ में है। इस भावना से मन लगाकर काम करने से मन में कभी निराशा नहीं होती और निरपेक्ष कत्र्तव्य बोध से, विपरीत परिणाम होने पर भी ईश्वरेच्छा का भाव होने के कारण किसी हितकारी विकास के लाभ की आशा न तो टूटती है और न हार का अनुभव ही होता है।

गीता के जिस परम उपदेश ने हताश और विषप्ण अर्जुन को युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र में अपने कत्र्तव्य की पूर्ति के लिए प्राणपण से जूझने को तैयार कर दिया वह हम सभी को कत्र्तव्य परायणता और कर्म के प्रति गहननिष्ठा की प्रेरणा देता है तथा यह शिक्षा नव जीवनदृष्टि देती हुई न तो कभी जीवनरण में हिम्मत हारने की और न ही कभी कर्म से विरत होने की, मूल्यवान सीख देती है। संकट के समय में भी मन को ताजगी और उत्साह से लबरेज रख कत्र्तव्य में जुटाये रखने वाली गीता यही कहती है कि-

आदमी है खुद अपना मित्र, स्वयं करना होता उद्धार,

समय को देता जो सम्मान, साथ देता उसका संसार।

बढ़ाचल, कभी न हिम्मत हार, कभी मत छोड़ कर्म का प्यार,

कर्म है जीवन का आनन्द, यही है जीवन का आधार॥

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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