श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – निर्वासन।)

☆ लघुकथा – निर्वासन ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

शहर से एक पक्षी अपने पुराने कुनबे से मिलने जंगल पहुँचा। जंगल ने बाँहें फैलाकर उसका स्वागत किया। सब पक्षी शहर और शहर में बीत रही उसकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहते थे। वे तरह-तरह के प्रश्न पूछ रहे थे। शहर के पक्षी को कुछ प्रश्न समझ में आए, कुछ नहीं। उसने कहा, “तुम सब इतना धीरे क्यों बोल रहे हो, कोई ख़तरा है क्या?”

“हम सब तो वैसे ही बोल रहे हैं, जैसे हमेशा से बोलते आए हैं। तुम काफ़ी ऊँचा बोल रहे हो, आवाज़ भी कर्कश हो गई है, शायद सुनने भी ऊँचा लगे हो।” एक पक्षी ने कहा।

“शायद तुम ही सही हो। शहर में इतना शोर है कि ऊँचा बोलना ही पड़ता है। मुझे लगता है कि ऊँचा बोलते-बोलते ऊँचा बोलना मेरा स्वभाव हो गया और मुझे पता ही नहीं चला। हो सकता है, ऊँचा सुनने भी लगा होऊँ। और मेरी आवाज़ की कर्कशता तो मैंने भी महसूस की है।”

“बच्चे कैसे हैं तुम्हारे, क्या करते हैं?” दूसरे पक्षी ने पूछा।

“मुझे नहीं मालूम क्या करते हैं। सुबह होते ही पता नहीं कहाँ उड़ जाते हैं और देर रात तक लौटते हैं। मैं तो जब भी उन्हें देखता-सुनता हूँ, हमेशा उड़ान की बातें करते पाता हूँ। पता है क्या कहते हैं वे? जंगल का आसमान बहुत नीचा है और शहर का बहुत ऊँचा। हमें बहुत ऊँची उड़ान भरनी है।”

“ऐसा? चलो अच्छा है, अपने मन का कर रहे हैं। और तो सब ठीक है न! कोई जोखिम वगैरह तो नहीं है?”

“क़दम-क़दम पर जोखिम हैं। बिजली के तारों का डर, किसी गाड़ी के नीचे कुचले जाने का डर, किसी बिल्ली, कुत्ते का भोजन बन जाने का डर! हर पल ख़तरे में गुज़रता है।”

“फिर तो अपना जंगल ही ठीक।” उस पक्षी ने लंबी साँस ली।

“जंगल भी अब कहाँ सुरक्षित हैं? आँधी-बारिश और बहेलियों का डर तो हमेशा रहता था। अब जिस तेज़ी से जंगल कट रहे हैं, रहने के लिए सुरक्षित जगहें लगातार कम होती जा रही हैं। खाने का भी संकट पैदा होने लगा है।” एक पक्षी ने उस पक्षी की बात का विरोध करते हुए कहा।

“अब हम कहीं सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन बस एक तसल्ली है कि कितनी ही बड़ी मुसीबत आए, हम मिलकर मुक़ाबला करते हैं। एक साथ मिलकर उड़ते हैं, एक साथ मिलकर गाते हैं, एक साथ तारों भरा आसमान देखते हैं।” एक और पक्षी ने कहा।

“एक साथ मिलकर रहना, एक साथ मुसीबत का सामना करना, एक दूसरे के दर्द को महसूस करना, एक साथ उड़ना और गाना- ये छोटी बातें नहीं हैं दोस्तो! यही तो असली जीवन है। शहर में यही सब तो नहीं है, हर कोई अकेला है वहाँ – दुख में भी, सुख में भी।” शहरी पक्षी ने जब यह कहा तो उसके स्वर की नमी से सारे पक्षी संजीदा हो आए। थोड़ी देर एक स्तब्ध चुप्पी पसरी रही, फिर एक पक्षी ने उससे कहा, “तुम अपने जंगल में वापस क्यों नहीं आ जाते?”

“जो अपना निर्वासन ख़ुद चुनते हैं, उनका लौट पाना संभव नहीं होता।” शहरी पक्षी के इस कथन के बाद पसरी चुप्पी फिर नहीं टूटी।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क –  406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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