॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ अप्पदीपो भव ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

‘अप्पदीपोभव’– यह उपदेश था महात्मा बुद्ध का अपने शिष्यों को। इस सूत्र वाक्य का अर्थ है- अपना दीपक आप बनो। संसार में जीवनपथ अज्ञात है, अंधकारपूर्ण है। कोई नहीं जानता कि कल क्या होगा। मनुष्य को यदि ऐसे अंधेरे मार्ग पर यात्रा करनी है, जो अनिवार्य है, तो उसे प्रकाश की बड़ी आवश्यकता है। प्रकाश दीपक से मिलता है। इसलिये उन्होंने उपदेश दिया कि अपना दीपक खुद बनो। किसी अन्य का सहारा चाहना उचित नहीं होगा। दूसरा तो थोड़ी दूर तक ही साथ दे सकेगा। अपने खुद के दीपक से सतत् संपूर्ण रास्ता प्रकाशित करने का भरोसा किया जा सकता है। खुद का प्रकाश होने पर आत्मविश्वास से चला जा सकता है। इस छोटे से गुरुमंत्र में बड़ा अर्थ भांभीर्य है। इस पर जितना चिंतन और इसका मंथन किया जाय उतना ही विस्तृत अर्थ निकलता है, उतना ही आनंद की अनुभूति होती है और आत्मविश्वास बढ़ता है। कार्यक्षेत्र कोई भी हो, काम करने वाले को स्वत: ही अपनी समझदारी से उस कार्य को संपन्न कर सफलता पानी होती है। दूसरे तो केवल दर्शक होते हैं। परिश्रम और आत्मविश्वास ही सफलता दिलाते हैं। इसके लिये काम की सारी तैयारी अपने ज्ञान के प्रकाश में खुद को ही करनी होती है। इसीलिये ज्ञान को प्रकाश का पर्याय कहा गया है। ज्ञान की साधना करना विवेचना कर वास्तविकता को समझना ही अपने ज्ञानदीप को प्रकाशित करना या जगाना है। इसी ज्ञान के प्रकाश में बढक़र जीवन यात्रा के लक्ष्य को पाना आनंददायी होता है। अपना रास्ता खोजने को, खुद ज्ञान प्राप्त करो और उसके प्रकाश में आगे निर्भीक रूप से बढ़ो। ज्ञान ही मुक्ति प्रदाता है। इसलिये आप स्वत: अपना दीपक जलाओ। ज्ञान के समान सहायक और कोई नहीं है। गीता में भी कहा गया है-

‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते।’

जो कुछ महात्मा बुद्ध ने अपने अनुभव से अपने शिष्यों को उपदेश में कहा है, प्रकारान्तर से गीता में भी वही बात स्पष्टत: कही गई है-

उद्धरेतात्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत्।

आत्मैव हि आत्मनो बन्धु: आत्मैव रिपु आत्मन:॥

अर्थ है- अपना उद्धार खुद करना चाहिये, खुद को पतन के गर्त में गिराना नहीं चाहिये। मनुष्य स्वत: ही अपना मित्र है और स्वत: ही अपना शत्रु है। कठिनाई में, जैसे मित्र अपने मित्र की सहायता कर उसका हित करता करता है वैसे ही अपनी सहायता हिम्मत के साथ खुद करें तो मनुष्य अपना मित्र है और इसके विपरीत, निराश हो कुछ न कर अपनी अवनति का कारण बने तो खुद का शत्रु है। समान परिस्थितियों में दो भिन्न व्यक्तियों के व्यवहारों में यह इस संसार में साफ दिखाई देता है। एक हिम्मत से काम ले सफलता या यश पाता है और दूसरा हिम्मतहार कर चुप बैठ जाता है और विफलता से अपयश का भागी होता है।

व्यक्ति की बुद्धि और कर्म ही उसे ऊंचा उठाते हैं या गिराते हैं। इसलिये मनुष्य को सही ज्ञान का सहारा ले आत्मविश्वास से सोच समझ कर जीवन पथ पर बढऩा चाहिये- अपना दीपक आप बनना चाहिये। ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार।’ मनस्वी अपने ज्ञान की ज्योति के प्रकाश में ही आगे बढ़ युग में नया इतिहास रचते हैं।

 © प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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