॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ अपनी योग्यता का लाभ औरों को दें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
बगीचों में जब फूल आते हैं तब बगीचे अपनी खूशबू वातावरण में बांट देते हैं। जब आम वृक्षों में मौसम में फल आते हैं तो वे झुककर विनम्रता से अपने फल जनसाधारण को उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य को भी जब सौभाग्य से योग्यता और अधिकार प्राप्त हो तो उसे भी उनका उपयोग समाज में विनम्रतापूर्वक जनहित में करना चाहिये। विभिन्न पदों के साथ अधिकारों की प्रतिष्ठा इसीलिये तो की गई है कि उनके समुचित उपयोग से जनता को लाभ मिल सके, उनका समस्याओं का समय पर निराकरण हो सके। परन्तु ऐसा क्या निर्बाध गति से हो रहा है? देखने में तो अधिकतर यह आ रहा है कि मनुष्य जब अधिकारपूर्ण किसी ऐसे पद को पा जाता है, जिससे वह जनसाधारण का हित कर सकता है, तब प्राय: वह जनहित को विशेष बिसराकर अपने और अपने परिवारजनों के सुखोपभोग में रत हो अहंकार और स्वेच्छाचार युक्त व्यवहार करने लगता है। ऐसा भला क्यों होता है? संबंधित जनों को आत्मचिंतन करना चाहिये। नैतिक दृष्टि से अनुचित व्यवहारों का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। शिक्षा तो व्यक्ति को ज्ञानवान तथा सुसंस्कारवान बनाती है। परन्तु तथाकथित सुशिक्षित और समझदार लोगों को अपने पद का दुरुपयोग करते देखा जाता है। आये दिन अखबारों के पन्ने ऐसे समाचारों से भरे होते हैं। बड़े लोग जिस राह पर चलते हैं, समाज के अन्य लोग भी बिना सोचे समझे उनका अनुकरण करते हुये वही राह पकड़ लेते हैं, क्योंकि ‘महाजनो येन गत: स पन्था:’।
जो जितने ऊँचे पद पर आसीन होता है, उसके अधिकार भी उतने ही बड़े महत्वपूर्ण तथा प्रभावी होते हैं। उतने ही बड़े क्षेत्र की जनता के सुख दुखों का उनसे संबंध होता है। उच्च पदाधिकारियों की जिम्मेदारियां भी उतनी ही अधिक होती है। अत: प्रत्येक को अपने कर्तव्यों का पूरा बोध होना चाहिये और उनके व्यवहार भी संयत तथा स्वानुशासित होने चाहिये। किसी कारणवश छोटा भी अनैतिक आचरण बहुत सी असहाय निरपराध जनता के लिये अहितकारी भर नहीं बल्कि घातक हो सकता है। इस बात का उन्हें निरंतर ध्यान होना चाहिये और उन्हें अपने धर्म का कड़ाई से पालन करने की मानसिकता बना लेनी चाहिये।
प्राचीन काल में सर्वोच्च शासक राजा होता था और उसका कर्तव्य था कि वह अपनी समस्त प्रजा का पुत्रवत्, स्नेह की भावना से पालन पोषण करे। उसके लिये धर्मोपदेश था-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवश नरक अधिकारी।
वर्तमान युग में राजा का स्थान राजनेताओं ने ले लिया है। अत: उनसे वही अपेक्षायें हैं जो पहले राजा से होती थीं। उन्हें जनसेवी, ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, न्याय परायण, दूरदर्शी और उदारमना होना ही काफी नहीं है, अपने दैनिक व्यवहार में खुद को वैसा प्रदर्शन भी करना चाहिये। परन्तु कई बार देखने में कुछ उल्टा ही आता है। अधिकार सम्पन्न उच्च पदस्थ लोग छोटे से लाभ के लिये कानून-कायदों का पालन नहीं करते। उनके परिवारी और मित्रमण्डली के लोग भी ऐसा करना अपना अधिकार मान लेते हैं और निर्धारित नियमों की अव्हेलना करते हैं। उनके मातहत जनसेवक भी उनकी कृपा की आकांक्षा में अपने कर्तव्यों में शिथिलता बरतते हुये उनके विरुद्ध कोई कानूनी कार्यवाही करने में असमर्थ होते हैं। यही अनुशासन हीनता को जन्म देता है। लोग गलत रास्तों को अपनाने लगते हैं और परिणाम स्वरूप अपराधों को बढ़ावा मिल जाता है। जनतांत्रिक शासन प्रणाली में जहां सबको समानता, स्वतंत्रता, बन्धुता और न्याय पाने का संवैधानिक हक है, लोग वांछित सुविधाओं से वंचित हो जाते हैं तथा दुखी होते हैं।
सबको विशेषत: जो उच्च पदों पर अधिक अधिकार और सुविधा सम्पन्न समझदार लोग हैं, आत्मचिंतन कर अपने कर्तव्यों, दायित्वों और जनहित को ध्यान में रखकर सदाचार का व्यवहार कर नियमों का दृढ़ता से पालन करना और कराना चाहिये ताकि छोटे से छोटा व्यक्ति भी प्रशासनिक व्यवस्था द्वारा उसके लिये निर्धारित लाभ बिना रुकावट पा सके और प्रसन्न रह सके।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈