॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ मंदिर का निर्माण ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

नगर से कुछ दूर पहाड़ी के पास सडक़ के किनारे बिड़ला जी ने एक मंदिर बनवाने का निर्णय किया। निर्माण की पूर्व तैयारी के रूप में सभी आवश्यक सामग्री, निर्माण स्थल पर जुटाई जा रही थी। दूर-दूर से चट्टानें तोडक़र पत्थर भी मंगवाये गये थे। ईंट पत्थरों के ढेर लगे हुये थे। सामान ट्रकों में भर-भरकर रोज लाया जाता था। बहुत से मजदूर उन्हें भवन निर्माण के लिये सुडौल आकार देने में लगे थे। पत्थरों को छेनी-हथौड़ी से तराशने, निश्चित आकार देने और बनाकर व्यवस्थित रखने के काम में बहुत से संग तराश लगाये गये थे, जो दिन रात मेहनत से कार्यों में जुटे थे।

कार्य स्थल पर लोगों की भीड़ और निर्माण सामग्री के विभिन्न ढेरों को देखकर सडक़ से चलने वाले अक्सर रुककर उत्सुकता से निहारते थे। एक दिन कोई प्रवासी वहां से निकला। पत्थरों पर छेनी हथौड़ों की मार की ध्वनि सुनकर उसका भी ध्यान उस ओर गया। काम करने वाले एक मजदूर से उसने पूछा- ‘क्यों भाई! ये क्या कर रहो हो?’ उत्तर मिला ‘देख नहीं रहे हो? अपना सिर फोड़ रहे हैं। पत्थर तोड़े जा रहे हैं और क्या?’ पूंछने वाले को लगा जैसे उसे थप्पड़ लग गया। कोई साफ उत्तर नहीं मिला, व्यर्थ ही उसने पूछा।

कुछ आगे बढक़र फिर वही प्रश्न उसने दूसरे मजदूर से पूछा। उसने उत्तर दिया- ‘भैया, रोजी-रोटी कमाने को पत्थरों को तराशने का काम जो मिल गया है, वही कर रहे हैं।’

राहगीर वास्तव में जानना चाहता था कि सारा काम किसलिये किया जा रहा है। कुछ दूर आगे बढक़र उसने एक अन्य व्यस्त कारीगर से पूछा ‘क्यों भाई यह क्या काम हो रहा है?’ उसने उत्तर दिया- ‘एक सेठ मंदिर बनवा रहे हैं, उसी के लिये पत्थर तराशे जा रहे हैं। मैं वही काम कर रहा हूं।’

प्रश्नकर्ता की जिज्ञासा कुछ शांत हुई। उसे ज्ञात हुआ कि वहां पर एक मंदिर बनने वाला है। उसी की पूर्व तैयारी में सब जुटे हैं। वह एक पथिक की भांति कुछ सोचता-विचारता आगे बढ़ गया। कुछ आगे चलने पर उसने सुना कि एक सेठ किसी से पूछ रहा था कि एक दिन पहले वह काम पर गैरहाजिर क्यों था? मजदूर ने सेठ को बताया कि चूंकि उसकी मां बीमार थी, इससे उस दिन वह नहीं आ सका था। उसने आगे कहा- ‘दादा! कल का काम भी मैं आज पूरा कर लूंगा। मुझे ख्याल है कि मैं एक मंदिर के निर्माण में अपनी योग्यता के अनुसार पूरी तरह काम कर रहा हूं, जो जब बन जायेगा तब लाखों लोग वहां भगवान के दर्शन को श्रद्धा से आयेंगे और मंदिर को देखकर सुख शांति या एक-एक पत्थर पर उकेरी गई कला को देखकर बनाने वालों की सराहना करेंगे। हम कारीगरों का उस भव्य मंदिर के निर्माण में एक महत्वपूर्ण योगदान है।’

पथिक उन चारों मजदूरों के मन की बात सुनता हुआ अपने गंतव्य की ओर चला जा रहा था। उसे लगा कि उन चारों के उत्तरों और कार्य के प्रति उनके दृष्टिकोणों में जमीन-आसमान का अन्तर था। जबकि सभी अपनी आजीविका कमाने के लिये ही वहां एक कार्य कर रहे थे। पहले के उत्तर में कार्य के प्रति खीझ, बोझ और उपेक्षा का भाव था। दूसरे के उत्तर में अपना पेट भरने के लिये अर्थ लाभ का भाव स्पष्ट था। तीसरे के उत्तर में अपने स्वार्थ हेतु कार्य करने के साथ ही पत्थरों को कलात्मक रूप देने की भावना की झलक थी, किन्तु चौथे के उत्तर में तो कार्य करने की ललक, कार्य के प्रति निष्ठा, अपनी जिम्मेदारी को समझने और मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण सहयोगी होने की भावना के साथ ही जनता की अपेक्षाओं और कला के मूल्यांकन से उन्हें मिलने वाली आनन्दानुभूति और मंदिर में भावी सुन्दर स्वरूप की कल्पना का चित्र भी उभरता है।

चारों द्वारा मजदूरी लेकर एक सा काम किये जाने पर भी प्रत्येक की अपनी मनोभाव की भारी भिन्नता स्पष्ट समझ में आती है। मन की लगन और भावना ही कार्य को गरिमा प्रदान करती है। दूरदर्शिता और दृष्टिकोण के भेद कार्य की शैली में भिन्नता के रंग भर देते हैं। आजीविका के लिये श्रम तो सभी करते हैं पर जहां श्रम के साथ भावना के मिठास का पुट घुल जाता है वहां कार्य में सौंदर्य और आनन्द बढ़ जाता है। भावनापूर्ण श्रम ने ही संसार को सुन्दर बनाया है।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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