॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ कर्तव्यनिष्ठा अपनायें ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

आज अखबारों के पन्ने और टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाले समाचार बुलेटिन ऐसे समाचारों से भरे होते हैं, जिनसे समझदार श्रोताओं के मन दुख और वितृष्णा से भर उठते हैं। अनाचार, व्यभिचार, छल-कपट, धोखाधड़ी, घपले-घोटाले और छोटे-छोटे स्वार्थों के लिये हत्या, अपहरण, आगजनी तथा आतंकवादियों के राक्षसी हत्या के बढ़ते नये-नये समाचार प्राय: रोज ही पढ़े और देखे जाते हैं। ऐसे समाचारों की वृद्धि एक सभ्य व्यक्ति को सोचने के लिये विवश करता है कि समाज में ये बुराईयां तेजी से क्यों बढ़ रही हैं?

एक वह युग था जब महात्मा गांधी जैसे सात्विक और त्यागी व्यक्ति के नेतृत्व में देश विदेशी शासन से मुक्ति के लिये कठोर सघन संघर्ष कर रहा है। तब सबके मन में एक ही लक्ष्य की प्राप्ति के पवित्र भाव तरंगित होते थे कि देश के लिये कुछ ऐसा किया जाय जिससे स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयत्नों को बल मिले, देश का भविष्य उज्जवल हो सके। सबकी आंखों में रामराज्य के सुखों की कल्पना थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हर भारतीय व्यक्ति को देश की प्रगति और सम्पन्नता की आशा थी। गांवों से गरीबी के उन्मूलन की अभिलाषा थी। इसलिये ही चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव सरीखे क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुतियां दी थीं। देशहित के लिये उनमें जुनून था। नेता जी वीर सुभाषचन्द्र बोस सरीखे विचारक के मन में आकाश के तारे तोड़ लाने और भारत माँ की पूजा में समर्पित करने की उत्कट कामना थी। इन्हीं व ऐसे ही अनेकों अज्ञात नाम देशभक्तों के स्तुत्य प्रयत्नों और त्याग से हमें आजादी तो मिली पर सपने पूरे न हो सके। केवल निराशा और विषाद ही बढ़ सके। गीता में कहा है- ‘आत्मैव आत्मनो बन्धु:- आत्मैव रिपु आत्मन:।’ अर्थात् व्यक्ति स्वत: ही अपना मित्र है और स्वत: ही अपना शत्रु है। अपने ही सोच और कार्य व्यक्ति को ऊपर उठाते हैं और वही उसे नीचे गिराते हैं। उठने के लिये तो सोच की पवित्रता, कर्मठता और त्याग तप की भावना जरूरी है, किन्तु गिरने के लिये दुष्प्रवृत्ति और स्वार्थ ही पर्याप्त है। उत्कर्ष के लिये श्रम और समय जरूरी है पर पतन के लिये स्वार्थ और लोभ ही आज देश की दुर्गति का कारण, यही स्वार्थ और धन का लालच है। हमने अपने पुराने धार्मिक और आध्यात्मिक आदर्शों को भुला दिया है। सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत को त्याग दिया है। सारे जीवन व्यापार और व्यवहार केवल धन केन्द्रित हो गये हैं। धन आज भगवान बन बैठा है और उसी की पूजा हो रही है। पुराने सिद्धांतों, आदर्शों और जीवन मूल्यों का तिरस्कार हो रहा है। हर क्षेत्र में छोटे से ऊंचे पदों तक पै बैठे लोग, उद्यमी और व्यापारी सभी श्रम और कर्मनिष्ठा को भूल सिर्फ स्वार्थ लाभ में लिप्त हैं। सबको केवल धन चाहिये। प्राप्ति के साधन चाहे जो हो कोई चिंता नहीं। जरूरत है सारे समाज में एक साथ सदाचार की शिक्षा, मनोभाव में परोपकार की भावना और उत्कृष्ठ कर्तव्यनिष्ठा की। तभी बुराई के दलदल से उबरने की संभावना। इस हेतु कर्म करना अनुचित न होगा पर प्रश्न है कि बिल्ली के गले में घण्टी बांधे कौन?

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments