॥ मार्गदर्शक चिंतन

☆ ॥ झूठी महत्वाकांक्षा ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆

यूनान का बादशाह सिकन्दर बड़ा महत्वाकांक्षी था। समस्त संसार को जीतकर वह विश्व विजेता बनना चाहता था। इसी महत्वाकांक्षा को लेकर वह अपने देश से निकला। मार्ग में अनेकों देशों को जीतता हुआ वह भारत में आया। उसने पंचनद प्रदेश में युद्धकर उसे जीत लिया और पराजित राजा पुरु को बंदी कर उसे सामने लाने का अपनी सेना को आदेश दिया। राजा पुरु सामने लाया गया। सिकन्दर ने उससे पूछा- तुम्हारे साथ कैसा बर्ताव किया जाय। पुरु ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया- जैसे एक राजा दूसरे राजा के साथ व्यवहार करता है वैसा ही व्यवहार उसके साथ किया जाय। उसके निर्भीक उत्तर से वीर सिकन्दर बहुत प्रभावित हुआ और उसका राज्य उसे वापस करता हुआ उसकी वीरता और निर्भीकता की सराहना की। तभी उसे अपने गुरु अरस्तु का उपदेश याद हो आया। गुरु ने कहा था कि भारत आश्चर्यकारी आध्यात्मिक देश है। वहां के निवासी वीर और सत्यवादी हैं। यदि तुम वहां जाओ तो वहां के किसी संत जो प्राय: सारा जीवन चिन्तन-मनन और ईश्वर भक्ति में बस्ती से दूर किसी नदी किनारे, एकान्त स्थान में बिताते हैं, उससे जरूर मिलना।

सिकन्दर ने विजय तो पाली थी परन्तु उसकी सेना भारत के गरम मौसम से ऊब गई थी और वापस स्वदेश जाने को उत्सुक थी। ऐसी स्थिति में सिकन्दर वापस लौटने को मजबूर हो गया। जाने से पहले वह किसी संत/फकीर या आध्यात्मिक महापुुरुष से मिल लेना चाहता था। उसने एक संत का परिचय पाकर उससे मिलने गया। संत अपनी कुटिया में शांत भाव में थे। सामने पहुंचकर सिकन्दर ने कहा- मैं विश्व विजय के लिये निकला सिकन्दर महान हूं। यहां भारत को जीता है। आपको प्रमाण है। साधु महात्मा ने कोई उत्तर नहीं दिया। सिकन्दर ने फिर से अभिमान से उन्हें नमस्कार किया पर साधु की कोई प्रतिक्रिया न हुई। उसने फिर गुस्से से अपने को महान बताते हुये उस संत का अपमान व तिरस्कार करते हुए कहा- तू कैसा संत है कुछ बोलता ही नहीं। यह सुनकर संत ने कहा- क्या बोलूं? सुन रहा हूं कि तू खुद को विश्व विजेता एक महान व्यक्ति बताता है। तू तो मेरी दृष्टि में वैसा ही मालूम होता है जैसे कोई पागल कुत्ता जो अनायास भौंकता है और दूसरे निर्दोष प्राणियों पर हमला कर उन्हें नुकसान पहुंचाता या मार डालता है। तूने अनेकों देशों के निर्दोष लोगों पर अकारण हमलाकर उन्हें मार डाला है। देशों को उजाड़ दिया है। बच्चों और स्त्रियों को बेसहारा करके उन्हें रोने विलपने के लिये छोडक़र भारी अपराध किया है। उन्हें सारा जीवन भारी कष्ट में बिताना होगा। जो दूसरों के अकारण प्राण लेता है वह विजेता कैसे वह तो ईश्वर की दृष्टि में बड़ा अपराधी है, मूर्ख है। विजेता तो हम उसे मानते हैं, जो अपने मन पर विजय पाता है। मन की बुराईयों को जीतता है और दूसरों के दुख-दर्दों को नष्ट कर उन्हें प्रसन्न रखने के लिये संकल्प कर हमेशा भलाई करने का कार्य करता है। बड़ा विजेता वह है जो औरों पर नहीं अपने मन पर अपने आप पर विजय पाकर बुरे काम करना छोड़ देता है और सदाचारी बनकर परहित कार्यों में जीवन बिताता है। वही ईश्वर को प्रिय होता है। अत्याचारी को भगवान पसंद नहीं करता। सिकन्दर संत की वाणी से जैसे सोते से जाग गया और आत्म निरीक्षण में लगकर स्वत: को ईश्वर का अपराधी समझकर अपने व्यवहार में सुधार करने का विचार करने लगा। परन्तु वह अधिक दिन जीवित न रहा।

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

 ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, म.प्र. भारत पिन ४६२०२३ मो ७०००३७५७९८ [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments