सुश्री रक्षा गीता
(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है। आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज प्रस्तुत है उनकी कविता “मुखौटा”।)
संक्षिप्त साहित्यिक परिचय
- एम फिल हिंदी- ‘कमलेश्वर के लघु उपन्यासों का शिल्प विधान
- पीएचडी-‘धर्मवीर भारती के साहित्य में परिवेश बोध
- धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित
☆ मुखौटा ☆
मेरे चेहरे पर
स्वयं
मुखौटा चढ़
जाता है,
मन घबरा जाता है,
पूरी आत्मीयता से
जब मुस्कुराता है,
उसे देख कर ,
नफरत तो नहीं जिससे,
मगर प्रेम भी तो नहीं ।
मुखौटा हंसता है !
मन कहीं रोता है ,
ऐसा कहीं होता है!
मगर सोच कर
जरा भी-
हैरान नहीं होता है।
जबकि सब ओर चढ़े हैं
मुखौटे !!
पल-पल बदलते हैं
सामने मुख़ौटे के हिसाब से रंग रूप रंग लेते हैं
मुखौटा
पर ये मुखौटा ?
सच्चा है ?
रंग रूप में कच्चा है।
चेहरों को देख ,
डर से घबरा जाता है
बदल लेता है राह
कभी रंग रूप पककर
सख्त हो जाएंगें
इस चेहरे पर भी कई मुखौटे
चढ़ जाएंगे
फिर
ना डरेगा
ना घबराएगा
ना
बदलेगा राह।
© रक्षा गीता ’
सुश्री रक्षा गीता जी की अभिव्यक्ति को “जीवन का अनुभव ही कहा जाएगा”।
निश्चित रूप से निर्विकार शिशु वक्त के थपेड़ों एवं स्वार्थी व्यवहारों को देखकर-अनुभवकर समयानुसार अपनी सुख-सुविधाओं, यश-कीर्ति की आकांक्षाओं के अनुरूप स्वयं को बदलता जाता है।
यह हमारा वास्तविक नहीं छद्म परिपक्व होना है। नियत मानवीयता गुणों से परिपक्व होना हमारा उद्देश्य होना चाहिए। अच्छी रचना है।
“कभी रंग रूप पककर सख़्त हो जाएँगे
इस चेहरे पर भी कई मुखौटे चढ़ जायेंगे”
– विजय तिवारी ‘किसलय’
जबलपुर (म प्र)
धन्यवाद
यथार्थ अभिव्यक्ति
धन्यवाद जी