सुश्री विनीता सिन्हा
संक्षिप्त परिचय –
जन्म – 28 अप्रिल 1960
जन्मस्थान – गोला प्रखंड, जिला रामगढ़, झारखंड
शिक्षा – राँची विश्वविद्यालय तथा डिप्लोमा- वुमन इन्ट्राप्रिन्योरशिप, नरसी मुंजी काॅलेज, मुंबई, महाराष्ट्र से।
साहित्यिक विधा – कविता, कहानी, संस्मरण
प्रकाशन – पाथेय (मिला जुला), विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएँ , कहानियाँ प्रकाशित।
अभिरुचि- लेखन, पठन, लोकगीत, चित्रकारी, पुराने गीत
संप्रति – स्वतंत्र लेखन, बुटिक ‘नंदिनी’ के माध्यम से डिज़ाईनिंग,अपरेल्स पेंटिंग, एम्ब्रायडरी इत्यादि।
☆ साक्षात्कार – प्रश्न पाठक के, उत्तर लेखक के – श्री संजय भारद्वाज ☆ परिचर्चा – सुश्री विनीता सिन्हा ☆
संजय भारद्वाज से विनीता सिन्हा की बातचीत
प्र.-आप जो रचते हैं, उस जगह स्वयं उपस्थित होते हैं या यह सर्वथा काल्पनिक होता है। यदि हाँ तो आप अलग-अलग विषयों को लेते हैं, जाने क्या- क्या गढ़ लेते हैं, इतनी गुंजाइश कैसे हो जाती है?
उ- विनम्रता से कहना चाहूँगा कि मेरी रचना प्रक्रिया में काल्पनिकता का पुट लगभग नहीं होता। जैसे ज्वालामुखी में वर्षों तक कुछ न कुछ संचित होता रहता है, उसी तरह देखा, सुना, भोगा यथार्थ भीतर संचित होता रहता है। फिर एक दिन लावा फूटता है और रचना जन्म पाती है। रही बात उपस्थित रहने की तो ईश्वर ने हर मनुष्य को देखने की शक्ति दी है। माँ सरस्वती, लेखक के देखने को दृष्टि में बदल देती हैं।
मैं परकाया प्रवेश में विश्वास रखता हूँ। वागीश्वरी प्रदत्त दृष्टि से संबंधित घटना के पात्र में जब प्रवेश करता हूँ तो घटना और पात्र के विभिन्न आयाम दिखने लगते हैं। अध्यात्म में अद्वैत का उल्लेख होता है। परकाया प्रवेश कर लेखक को अपने पात्र के साथ अद्वैत होना पड़ता है। तभी रचना में ईमानदारी आती है और व्यक्तिगत की अपेक्षा समष्टिगत भाव प्रकट होता है।
जहाँ तक अलग-अलग विषयों का प्रश्न है, सुबह उठने से रात सोने तक मनुष्य का जीवन अनगिनत घटनाओं का साक्षी होता है। स्वाभाविक है कि लेखन के विषय भी अलग- अलग होंगे। समानांतर रूप से इसे संबंधों के संदर्भ में ढालकर देखिए। मनुष्य माता-पिता, पति-पत्नी, भाई-बहन, मित्र-सहेली आदि के रूप में अलग-अलग भूमिकाओं का सहजता से निर्वहन कर रहा होता है। पिता और पति की भूमिकाओं में कितना विषयांतर है। बस कुछ इसी तरह भीतर का लेखक भी अलग-अलग भूमिकाओं को जी लेता है। इन सब की गुंजाइश के बाद भी गुंजाइश बची रहती है। यह शेष समाई, अशेष लिखाई का मार्ग प्रशस्त करती है।
अनुभूति वयस्क तो हुई
पर कथन से सकुचाती रही,
आत्मसात तो किया
किंतु बाँचे जाने से
काग़ज़ मुकरता रहा,
मुझसे छूटते गये
पन्ने कोरे के कोरे,
पढ़ने वालों की
आँख का जादू
मेरे नाम से
जाने क्या-क्या पढ़ता रहा!
प्र.-आप प्रत्यक्ष में जहाँ होते हैं, अप्रत्यक्ष में क्या उसी समय कहीं और भी विराजमान रहते हैं ? अगर दो जगह अपनी उपस्थिति दिखाते हैं तो दोनों जगह किस तरह न्याय कर पाते हैं?
उ.- एक शब्द है अन्यमनस्कता। मैं हर काम मन लगाकर करता हूँ पर शाश्वत अन्यमनस्क हूँ। यह अन्यमनस्कता प्रकृति प्रदत्त है। मैं इसमें बदलाव नहीं करना चाहता, कर भी नहीं सकता।
प्रत्यक्ष और परोक्ष उपस्थिति केवल लेखक पर लागू नहीं होती, हर मनुष्य पर अपितु हर सजीव पर लागू होती है। मन के समान तीव्र गति वाला जेट आज तक न विकसित हुआ, न हो सकेगा। यह जेट क्षणांश में त्रिलोकी की परिक्रमा कर लेता है। लेखक को यह वरदान मिला है कि अपने स्थान पर बैठकर इस परिक्रमा को शब्दों में व्यक्त कर सके।
मस्तिष्क ने अनेक परतें तैयार कर ली हैं। अपना काम फिर चाहे वह रोज़ी-रोटी हो, सामाजिक-सांस्कृतिक उपक्रम हों, पुस्तकों की भूमिका-समीक्षा आदि हो, सब करते हुए भी एक परत में सृजन सम्बंधी चिंतन समानांतर सतत चल रहा होता है।
ऐसे में प्रत्यक्ष उपस्थित स्थान पर अपना काम पूरी निष्ठा से करते हुए भी परोक्ष में चित्र बन रहे होते हैं, शब्द उमग रहे होते हैं। न्यूनाधिक यह स्थिति 24x 7 है। यह ‘बाय डिफॉल्ट’ है।
जंजालों में उलझी
अपनी लघुता पर
जब कभी
लज्जित होता हूँ,
मेरे चारों ओर
उमगने लगते हैं
शब्द ही शब्द,
अपने विराट पर
चकित होता हूँ..!
प्र.- आप सड़क पर चल रहे हैं, किसी रास्ते से गुज़र रहे हैं, उस पल के अवलोकन से खुद को जोड़कर एक मर्मस्पर्शी रचना का रूप दे देते हैं। क्या आप एकदम से ऐसा कर लेते हैं या बहुत मनन, चिंतन के बाद रचना आकार लेती है।
उ.- जैसा मैंने आरंभ में कहा कि सृजन के मूल में वैचारिक संचय होता है। अबोध से बोधि होने की प्रक्रिया के मूल में विचार ही है। विचार का यह संचय कुछ समय का नहीं होता। मनुष्य के जन्म लेने से लेकर किसी रचना के उस संदर्भ में प्रस्फुटित होने तक का होता है। मुझे तो अनेक बार लगता है कि आवश्यक नहीं, संचय केवल इस जन्म का ही हो। यह जन्म की सीमाओं को लांघकर जन्म-जन्मांतर का भी हो सकता है।
तथापि केवल विचार से रचना नहीं सिरजती। सृजन के लिए आवश्यक है अवलोकन। फिर अवलोकन चाहे दृश्यात्मक हो या शाब्दिक। कुछ देखकर, सुनकर एक आघात-सा होता है और रचना फूट पड़ती है।
निरंतर मेरे मर्म पर
आघात पहुँचा रहे हैं,
मेरी वेदना का घनत्व
लगातार बढ़ा रहे हैं,
उन्हें क्या वांछित है
कुछ नहीं पता,
मैं आशान्वित हूँ
किसी भी क्षण
फूट सकती है एक कविता!
यही मेरी रचना प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया हर लेखक पर लागू हो, यह आवश्यक नहीं। प्रत्येक का अनुभव ग्रहण करने का अपना तरीका होता है, अभिव्यक्ति का अपना तरीका होता है। सृष्टि में यूँ भी हर आदमी अनुपम है, हर आदमी अतुल्य है।
जहाँ तक चिंतन-मनन करके लिखने का प्रश्न है, सोच-विचार करके, बिंदु तैयार करके अनुसंधानात्मक लिखना तो हो सकता है पर ललित लेखन नहीं। ललित लेखन से उपजी रचना स्वत: संभूत होती है, विशेषकर कविता। कहानी के चरित्र कुछ विस्तार की मांग रखते हैं। उपन्यास में विस्तार विस्तृत होता है। नाटक में चरित्र सर्वाधिक विचार के बाद उपजते है। तथापि सृजन का प्रभाव इतना तीव्र होता है कि वह उस क्षण वैचारिकता के लिए थमा नहीं रह सकता। थमा तो जमा। इसका अर्थ है कि वैचारिकता सृजन से पूर्व की प्रक्रिया है।
मैंने अपना एक नाटक रात 3 बजे से अगली दोपहर 3 बजे तक लगभग एक सिटिंग में लिखा। पहला संवाद लिखते समय तय नहीं था कि किस चरित्र का विकास किस भाँति होगा और कथानक का उत्कर्ष क्या होगा। प्रसव पीड़ा होती रही, नाटक लिखा जाता रहा और समाप्ति पर मैं स्वयं भी अवाक था।
प्र – आप चलते-बैठते महफिल में हमेशा मनन करते रहते हैं तो घर परिवार के साथ सामंजस्य किस प्रकार बैठा पाते हैं? क्या एक अच्छे रचनाकार की कोई निजी ज़िंदगी नहीं होती? क्या वह हमेशा समाज को क्या दे, इसी ऊहापोह में डूबता-उतरता रहता है?
उ- मनुष्य सामान्यत: ‘स्व’ तक सीमित रहना छोड़ नहीं पाता। तथापि ‘स्व’ का विस्तार कर इसमें समष्टि को ले आए तो स्वार्थ, परमार्थ हो जाता है। मेरे लिए घर-परिवार और समाज या यूँ कहूँ कि सजीव सृष्टि एक ही बिंदु में अंतर्निहित हैं। इसे आप ऐसे भी कह सकती हैं कि इन सबको अलग-अलग आँख से नहीं देख सकता मैं। यह सत्य है कि लौकिक अर्थ में मैं शायद परिवार के साथ न्याय नहीं कर पाता पर अपने दायित्वों का निर्वहन सदैव करता रहा हूँ, आजीवन करता भी रहूँगा। लेखक के रूप में मेरी भूमिका के निबाह में बड़ा योगदान परिवार का भी है। मुख्य श्रेय सुधा जी को है। वह कभी कुछ विशेष की चाह नहीं रखतीं, डिमांड नहीं करतीं। यह उनका त्याग भी है, यही हमारा संतुलन भी है। मेरी दो पंक्तियाँ हैं-
बनने-गढ़ने की प्रक्रिया
यों संतुलित करती रही,
मैं इतिहास रचता गया
वह इतिहास होती गई।
इतिहास रचने वाली बात को मेरे सम्बंध में कृपया न लें। मैं साहित्य का अल्पज्ञानी विद्यार्थी भर हूँ। शब्दों के माध्यम से थोड़ा बहुत व्यक्त हो लेता हूँ। मैं अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को माँ शारदा की अनुकंपा, माता-पिता के आशीष और अपने पाठकों की आत्मीयता का परिणाम मानता हूँ।
प्र.- आपके रचने की जो गति है, वह इस दौर में अपने गंतव्य तक वक्त से कैसे पहुँच जाती है?
उ.- जब जो उपजता है, विद्युत गति से आता है। उस गति से उसे काग़ज़ पर लिखकर, मोबाइल पर टाइप करके या रिकॉर्ड करके या ‘स्पीच टू टेक्स्ट’ के माध्यम से भी उतारा नहीं जा सकता। उस गति को, मैं क्या संभवत: कोई भी लेखक पकड़ नहीं सकता। कोई मनुष्य इतना सक्षम होता ही नहीं कि वह अपौरुषेय की गति के साथ कदमताल कर सके। बहुत कुछ छूट जाता है। जो छूट गया उससे बेहतर या कमतर संभवत: कभी आ भी जाए पर जो ज्यों का त्यों कभी नहीं लौटता। सत्य तो यह है कि जितना उपजता है, उसका आधे से भी कम काग़ज़ पर उतार पाता हूँ।
कभी पूछा मैंने-
साँस कब लेते हो,
कैसे लेते हो,
क्यों लेते हो?
फिर क्यों पूछते हो-
कब लिखता हूँ,
कैसे लिखता हूँ,
क्यों लिखता हूँ?
…..बस लिखता हूँ!
प्र.- पूर्णकालिक लेखन के साथ-साथ आप हिंदी आंदोलन परिवार, क्षितिज प्रकाशन, आध्यात्मिक प्रबोधन, अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों से भी जुड़े हैं। एक मनुष्य के लिए इतना सब कैसे संभव है? शिक्षा के दौरान हमने टाइम मैनेजमेंट पढ़ा था पर 24 घंटों को 48 घंटे में बदलना महज किताबी ज्ञान से तो संभव नहीं हो सकता। कृपया इस पर भी प्रकाश डालें।
उ.- मनुष्य को चाहिए कि अपने काम में आनंद अनुभव करे। इस अनुभूति से काम बोझ नहीं लगता, अपितु चहुँ ओर आनंद ही प्रवाहित होने लगता है। एक प्रसंग साझा करता हूँ। किसी स्थान पर प्रभु श्रीराम का मंदिर बन रहा था। एक जानकार ने अलग-अलग समय एक ही प्रश्न पत्थर ढोकर ले जानेवाले चार अलग-अलग मजदूरों से किया। प्रश्न था, ‘क्या कर रहे हो?’ पहले ने उत्तर दिया, ‘पिछले जनम में अच्छे करम नहीं किए, सो इस जनम में पत्थर ढो रहा हूँ।’ दूसरे ने कहा, ‘बचपन में पढ़ाई-लिखाई नहीं की तो मजदूरी करनी पड़ रही है।’ तीसरा बोला, ‘दिखता नहीं क्या? अपने परिवार का पेट पालने के लिए मेहनत-मजूरी कर रहा हूँ।’ तीनों परेशान, हैरान, खीज से भरे। इन मजदूरों की तुलना में चौथा मजदूर प्रसन्न था। कुछ गुनगुनाते हुए पत्थर ढोता चल रहा था। प्रश्न सुनकर प्रेम से बोला, ‘मेरे राम जी का मंदिर बन रहा है। मेरा भाग्य है कि थोड़ी सेवा दे पा रहा हूँ।’
मेरे लिए हर काम, रघुनाथ जी के मंदिर में अपनी सेवा देने जैसा है। प्रार्थना कीजिए कि यह सेवा अविराम रहे।
अनेक काम एक साथ करना भी शायद विधाता का दिया इनबिल्ट है। एक बात और कहना चाहूँगा कि जो कुछ नहीं कर रहा, उसके लिए एक काम करना याने शत-प्रतिशत बोझ लेना। उसके मुकाबले दस काम एक साथ करते हुए एक काम और बढ़ा तो कुल 10% काम ही तो बढ़ा। मुझे दस प्रतिशत की बढ़ोत्तरी अच्छी लगती है। मुझे चुनौतियाँ अच्छी लगती हैं, सीखने की नयी संभावनाएँ सदा आकर्षित करती हैं।
जुग-जुग जीते सपने
थोड़े से पल अपने,
सूक्ष्म और स्थूल का
दुर्लभ संतुलन है,
नश्वर और ईश्वर का
चिरंतन मिलन है,
जीवन, आशंकाओं के पहरे में
संभावनाओं का सम्मेलन है!
– सुश्री विनीता सिन्हा
संपर्क – 9967448399, D-1803, लाॅयड ईस्टेट, विद्यालंकार रोड, वड़ाला ईस्ट, मुंबई- 400 037
ई-मेल [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सार्थक चर्चा…अभिनंदनीय !
धन्यवाद।