॥ मार्गदर्शक चिंतन॥
☆ ॥ अनुशासन ॥ – प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’☆
अनुशासन का शब्दिक अर्थ है शासन का अनुगमन अर्थात् शासन के नियमों का पालन। यदि निर्धारित नियमों का पालन सभी के द्वारा किया जाय तो कहीं न तो कोई अव्यवस्था हो और न समाज के सही संचालन में कोई कठिनाई। परन्तु जब नियमों का पालन कुछ के द्वारा नहीं किया जाता तो अनेकों को कठिनाइयां होती हैं और यदि बहुत से लोग नियमों का पालन नहीं करते तो अराजकता शुरु हो जाती है। धर्म या राज्य के नियम समाज के सुख-शांति और प्रगति के लिये ही रचे गये हैं। उन पर सबके द्वारा पालन किया जाना जरूरी है। परन्तु प्राय: व्यक्ति अपने मन के अनुसार काम करना चाहता है, बन्धन नहीं चाहता, इसीलिये संघर्ष और नई-नई विपदायें शुरु होती हैं। अनुशासन मानना ही स्वच्छंदता है। स्वच्छंदता और स्वतंत्रता में भारी अन्तर है। स्वतंत्रता का अर्थ है समाज के समस्तजनों के हित को ध्यान में रख, नियमों का पालन करते हुये अपने व्यक्तित्व के विकास हित समझदारी से कार्य संपादन जबकि स्वच्छन्दता में स्वैराचार की और नियमों के पालन करने की भाववृत्ति प्रधान है। स्वतंत्रता तो एक उच्च आदर्श है, किन्तु स्वच्छंदता अनैतिक अत्याचार है जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये अहितकारी भर नहीं हानिप्रद भी है। इसी से पतन होता है।
आज हमारे देश में यही देखने में आ रहा है। हर व्यक्ति में अनुशासनप्रियता के स्थान पर क्रमश: उदण्डता की प्रवृत्ति बढ़ती दिखती है। कहीं भी देखिये- घर, परिवेश, स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, राजतांत्रिक संस्थाओं, सामाजिक संगठनों में जहां नजर जाती है, वहीं नियमों का उल्लंघन कर आंदोलन दिखाई देता है। जिस का आशय स्वार्थ को पूरा करना है, जनहित का नहीं। यह स्थिति देश के लिये बहुत ही दुखद है। समाज और शासन की गाड़ी पटरी पर नहीं चल सकती। इससे जो उन्नति की गई है वह स्थिर नहीं रह सकती और देश में जनतंत्र की भावना को कलंकित किया जा रहा है। संयम और सदाचार वे सद्गुण हैं, जिनसे असंभव को भी संभव किया जा सकता है और अनुशासनहीनता, स्वच्छंदता कलह, क्लेश तथा अवनति के निश्चितकारक हैं, जो पूर्वजों की कीर्ति को भी नष्ट करते हैं। आज की स्थिति सभी के लिये विचारणीय है जो सुधार की अपेक्षा हर एक से अनिवार्य रूप से रखती है। हमारा भविष्य अनुशासन प्रियता पर ही निर्भर है।
© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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