श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना  जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपकी एक मज़ेदार कथा श्रंखला  “मनमौजी लाल की कहानी…“ की अगली कड़ी ।)   

☆ कथा कहानी  # 46 – मनमौजी लाल की कहानी – भाग – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव 

(प्रशिक्षण की श्रंखला बंद नहीं हुई है पर आज से ये नई श्रंखला प्रस्तुत है,आशा है स्वागत करेंगे.पात्र मनमौजी लाल की कहानी “आत्मलोचन” से अलग है और ज्यादा लंबी भी नहीं है.)

मनमौजी लाल बड़े प्रतिभावान छात्र थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे. कुछ तो सच है और कुछ उनकी जन्मकुंडली भी कहती है. लगता है कि विद्या के कुंडली वाले घर में सरस्वती खुद विराजमान हो गई हैं. स्कूल में खेल का पीरियड उन्हें बिल्कुल भी अपनी ओर याने क्लास के बाहर नहीं खींच पाता था. आगे चलकर भी उन्हें वही खेल भाया जिसे शतरंज कहते हैं. कुर्सी पर बैठे बैठे, टेबल पर रखे चेस़ बोर्ड में शतरंजी चालों की बाजी का युद्ध. उनका बचपन वैसे तो “आत्मलोचन” जी के समान ही गरीबी की बाउंड्री लाईन पार नहीं कर पाया पर उनमें आत्म लोचन जी के समान,टीएमटी सरिया जैसे मजबूत इरादों की कमी थी. मन की मौज़ के अनुसार ही आचरण किया करते थे और फिलहाल उनका मन पढ़ाई में ही लगता था. मनमौजी का घर, गरीबी का शोरूम ही था. चंद लकड़ी की कुर्सियां, एक टेबल सामने के कमरे में, बीच के कमरे में दिन में खड़ी और रात को सोने के हिसाब से बिछी दो खाट. अंतिम कमरे में रसोई जहाँ बनाने और भूतल पर बैठकर भोजन करने की व्यवस्था. घर के पीछे आंगन, जिसमें बीच में तुलसी का पोधा जिसे मिट्टी के तंदूर आकार के स्टेंड के ऊपर रखा गया ताकि सुबह पूजा के वक्त जल चढ़ाया जा सके और शाम को तुलसी के नीचे तेल का दीपक रखा जा सके. इस घर में धर्म, ईश्वर पर विश्वास, हर पर्व को अपने सीमित साधनों से किफायती रूप से मनाने की रीति, मन जी की माताजी का स्वभाव था.  घर में सुंदर कांड का पाठ शनिवार और मंगलवार को होता था, गायत्री मंत्र रोज पूजा के समय पढ़ा जाता था, आरती सुबह और शाम दोनों समय की होती जिसमें शाम को “मन” भी रहते. दही हांडी, गनपति उत्सव और नवरात्रि सामाजिक पर्व थे जिनको मनाने की लागत बहुत कम थी पर आनंदित होने का प्रभाव बहुत ज्यादा. तो स्वाभाविक रूप से मां,पिताजी और इकलौते पुत्र मन, नियमित रूप से हिस्सा लेते.

अब बात चंद लकड़ी की कुर्सियों की तो कभी वो काम आतीं आगंतुकों की मेहमाननवाजी के लिये तो कभी मन जी के पढ़ने के लिये. ये दोनों सुविधाएं आपस में कभी कभी एक दूसरे की सीमा रेखा को क्रास कर जातीं जब पढ़ने के समय मिलने वाले आ जाते. यह स्थिति मन को अपनी स्टडी करने के लिए, न केवल सोने के लिये उपयोग में आने वाले कमरे की ओर जाना पड़ता बल्कि पढ़ाई में व्यवधान भी उत्पन्न होता।आने वालों के लिये जल और कम दूध की चाय अवश्य पेश की जाती और उनके जाने के बाद फिर से मनमौजी कुर्सी टेबल पर अधिकार प्राप्त करते. एकाग्रता तो भंग होती ही थी पर निदान नहीं था या था भी तो जगह और पैसे दोनों की डिमांड करता था. पर मनमौजी की असुविधा, उनके पिताजी बहुत शिद्दत से महसूस करते थे तो उन्होंने उस हिसाब अपनी कमाई की छोटी चादर में भी बचत की शुरुआत कर दी. चूंकि बचत का उद्देश्य बहुत नेक था और संकल्प भी मज़बूत तो, मनोकामना पूर्ण हुई और पहली बार घर में पुत्र जन्म के बाद दूसरी खुशी के रूप में आया लकड़ी का टू सीटर सोफासेट।उस कमरे में इतनी जगह तो थी कि घर के इकलौते चिराग और आगंतुकों का ख्याल कर सके तो उस कमरे में दोनों ही समा गये. वर्तमान शब्दावली इसे ड्राईंग कम स्टडी रूम के रूप में परिभाषित कर सकती है. आज तो लॉन, कैज़ुअल सिटिंग, ड्राइंगरूम, लिविंग रूम, स्टडी, किचन, स्टोर, डाइनिंग रूम, और दो, तीन, चार बेडरूम विथ अटैच WC की हाउसिंग लोन से खरीदी संपन्नता है पर कभी ऐसा समय भी था जब अभाव पर संतुष्टि प्रभावी थी. तब गरीबी हटाओ, शाइनिंग इंडिया,अच्छे दिन, सबका विकास जैसे सपने बेचे नहीं जाते थे और नागरिक भी अपने अभावों के लिये अपने भाग्य को जिम्मेदार मानकर चुपचाप वोट देकर अपने काम में लग जाते थे. एक तो उनमें अपनी असुविधाओं को, दूसरे की लक्जरी से तौलने की आदत नहीं थी, दूसरा ऐसे लोग अपने जैसों के बीच में ही रहते हैं तो सामाजिकता, वक्त पर एक दूसरे की सहायता करना, उमर के हिसाब से सम्मान या स्नेह और अपनापन देना जैसी कमजोरियों के कारण ईर्ष्यालु होना, आइसोलेशन में रहना, सोशल स्टेटस और झूठी शान को मेनटेन करने जैसे गुणों से संपन्न नहीं हो पाते.

 क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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