श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी बाल मनोविज्ञान और जिज्ञासा पर आधारित लघुकथा “घड़ी भर की जिंदगी …”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 137 ☆
☆ लघुकथा 🕛घड़ी भर की जिंदगी 🕛
यूं तो मुहावरे बनते और बोले जाते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशेष भाषा शैली होती है और वक्त के अनुसार अलग-अलग अर्थ भी होते हैं।
किन्तु, यदि किसी की जिंदगी ही घड़ी बनकर रह जाए और अंत समय में कहा जाए… ‘घड़ी भर की जिंदगी’ तो अनायास ही आँखें भर उठती है।
अशोक बाबू का जीवन भी बिल्कुल घड़ी की तरह ही बीता। बचपन से भागते-चलते अभाव और तनाव भरी जिंदगी में एक-एक पल घड़ी के सेकंड के कांटे की तरह बीता।
सदैव चलते जाना उनके जीवन का अंग बन चुका था। अध्यापक की नौकरी मिली, गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर उन्हें जरा सा सुकून मिला। घर में किलकारियाँ गूंजी, फिर जरूरतों का सिलसिला बढ़ चला। सब की जरूरतें पूरी करते-करते आगे बढ़ते गए।
बेटा बड़ा हुआ, विदेश पढ़ाई के लिए जाना पड़ा और उसकी जरूरतों को पूरा करते गये। वह विदेश गया तो फिर लौट कर नहीं आया।
बस फिर क्या था, वही दीवाल में लगी घड़ी की टिक-टिक की आवाज उनकी अपनी दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी थी। धर्मपत्नी ने भी असमय साथ छोड़ दिया।
स्कूल में भी घड़ी देख-देख कर काम करने की आदत हो चुकी थी। पास पड़ोसी आकर बैठते पर अशोक बाबू की आंखें दिन-रात घड़ी, समय पर आती जाती रहती, शायद वह वक्त बता दे कि बेटा वापस घर आ रहा हैं।
रिटायरमेंट के बाद घर में अकेलापन और घड़ी की टिक-टिक। एक नौकर जो सेवा करता रहता था, वह भी अपने काम से काम रखता था।
आज पलंग पर लेटे-लेटे घड़ी देख रहे थे। नौकर ने कहा… बाबूजी खाना लगा दिया हूँ। कोई जवाब नहीं आया। पड़ोसियों को बुलाया गया। आंखें घड़ी पर टिकी हुई थी और घड़ी की कांच दो टुकड़ों में चटक कर गिर चुकी थी। प्राण पखेरू उड़ चले थे। आए हुए बुजुर्गों में से किसी ने कहा…. “घड़ी भर की जिंदगी, घड़ी में समाप्त हो गई”। घड़ी भी अशोक बाबू के साँसों सी चलने लगी थीं, घड़ी चल रही थी, साँसें रुक गई थी।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈