डाॅ. निशिकांत श्रोत्री
इंद्रधनुष्य
☆ श्रीमहिषासुरमर्दिनी स्तोत्र – भाग 1 (मूळ संस्कृत स्तोत्र व त्याचा मराठी भावानुवाद) ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
(रचैता : रामकृष्ण —-वृत्त : दुसरी सवाई)
अयि गिरिनन्दिनि नन्दितमेदिनि विश्वविनोदिनि नन्दिनुते
गिरिवरविन्ध्यशिरोऽधिनिवासिनि विष्णुविलासिनि जिष्णुनुते ।
भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि भूरिकुटुम्बिनि भूरिकृते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥१॥
जय नगनंदिनी अवनिनंदिता धरणीमोदिते नंदिपुजे
गिरिशिखरावर विन्ध्यशिखावर वास करिशी रमणा ग रमे
भगवति हे निलकण्ठ पत्नी बहु कुटुंबिणी मनस्वीनि भजे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||१||
सुरवरवर्षिणि दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवनपोषिणि शङ्करतोषिणि किल्बिषमोषिणि घोषरते
दनुजनिरोषिणि दितिसुतरोषिणि दुर्मदशोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥२॥
सुर वरदायिनि दुष्ट निवारिणि दुर्मुखप्रितीणि मोदरमे
त्रिभुवन पोषिसि शंकर तोषवि कुकर्महारिणि घोषरमे
असुर निवारिणि देव संतोषिणि गर्वा हरिसी समुद्र सुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||२||
अयि जगदम्ब मदम्ब कदम्ब वनप्रियवासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्गहिमलय शृङ्गनिजालय मध्यगते ।
मधुमधुरे मधुकैटभगञ्जिनि कैटभभञ्जिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥३॥
जय जगदंब कदंब वनाचि निवासिनि हास्य तरंगतसे
हिमनग तुंगशिखाशृंगशिरि निजालयि वास धीमगते
मधुमद ताडिणि कैटभ भंजिणि गोड मधूर संगीत लुभे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||३||
अयि शतखण्ड विखण्डितरुण्ड वितुण्डितशुण्द गजाधिपते
रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते ।
निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥४॥
गजशिर तोडुन शुंड विदारण चंड पराक्रम हत्ति जिंके
रिपुगजगंड विदारक शार्दुलआरुढ घोर बलाढ्य उमे
चंडविर तू रिपुनायक हस्त धरूनि वधीसि करानि लिले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||४||
अयि रणदुर्मद शत्रुवधोदित दुर्धरनिर्जर शक्तिभृते
चतुरविचार धुरीणमहाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते ।
दुरितदुरीह दुराशयदुर्मति दानवदुत कृतान्तमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥५॥
जय रणरागिणि शत्रु वधोनि अतुल्य अमोघचि शक्ति धरी
चतुर विचारि पती प्रमथासि सदाशिव होउन दूत तुझे
असुर दुराचर मर्दिसि दुष्ट वधीसि रणांगणि शौर्य तुझे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||५||
अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे
त्रिभुवनमस्तक शुलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शुलकरे ।
दुमिदुमितामर धुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥६॥
अभय तयासि पदी शरणागत तू असुरस्त्रि उराशि धरी
त्रिभुवन पीडित दैत्य विनाशिनि शस्त्र करी त्रिशुलासि धरी
दुमदुम नाद करूनि दिशांसि तुझी दुंदुभी विजयात सुरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||६||
अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते
समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते ।
शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते ॥७॥
रुधिर बिजांसि समूळ नाशिसी लपालप तू पिउनी रक्ता
निकुंभ शुंभा बलि देउनि तू शिव तोषविसी गण आणि भुता
समर रणांगणि धुम्रसुरासि भस्म करि हुं करुनी असुरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि मोहक पार्वति सुकुंतले ||७||
– क्रमशः भाग पहिला
भावानुवाद : डॉ. निशिकांत श्रोत्री
९८९०११७७५४
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈