श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय कहानी – “एहसासों का दरिया”।)
☆ कथा कहानी # 159 ☆ “एहसासों का दरिया” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
चा -पांच कमरे का सरकारी मकान है। सुबह 10बजे मम्मी को उनके विभाग की सरकारी गाड़ी ले गई, फिर कुछ देर बाद पापा को उनके विभाग की गाड़ी ले गई… मैं हाथ हिलाता रह गया, पीछे मुड़ा तो अचानक गलियारे में लगी बाबूजी की श्वेत श्याम मुस्कुराती हुई तस्वीर ने रोक लिया….। कैसे भूल सकता हूं बाबूजी को…, उनकी प्यारी गोद जिसमें आराम था, सुकून था और थी प्यार की गर्मी। कैसे भूल सकता हूं बचपन के उन दिनों को जब बाबूजी मुझे गोद में लेकर स्कूल छोड़ने जाते थे…। जीवन में क्या क्या करना है और क्या नहीं, यह सब वे मुझे रास्ते भर बताते चलते थे। बाबूजी का प्यार मेरे लिए पूंजी बन गया। रामायण और महाभारत की प्रेरणादायक कहानियां… ज्ञान के खजाने की चाबी… शब्दकोश को समृद्ध बनाने की कलाबाजी, सभी कुछ मुझे बाबूजी से मिली। मेरे कदमों ने उन्हीं की उंगली पकड़कर चलना सीखा। जीवन जीने की कला का पाठ स्कूल में कम पर बाबूजी ने मुझे ज्यादा पढ़ाया। स्कूल आते जाते रास्ते में मेरी फरमाइश लालीपाप की रहती और बाबूजी को उतनी ही याद रहती।
पांचवीं की परीक्षा के रिजल्ट ने पापा -मम्मी की महात्वाकांक्षा बढ़ा दी थी। पापा -मम्मी ने मुझे बड़े शहर के प्रतिष्ठित स्कूल के हॉस्टल में पहुंचा दिया था। मुझे याद है बड़े शहर भेजते हुए बाबूजी तुम मुस्कराने का नाटक बखूबी निभा रहे थे। बाबूजी, न तुम मुझसे जुदा होना चाहते थे और न ही मैं तुमसे अलग होना चाहता था….
फिर हॉस्टल में ऊब और अकेलापन, मेरे अंदर अवसाद ले आया। कभी कभी पापा -मम्मी मिलने आते तो खीज सी उठती,तब बाबूजी तुम मुझे फोन पर समझाते और उन परिंदों की कहानी सुनाते जिसमें परिंदे जब अपने बच्चों को उड़ना सिखाते तो धक्का दे देते और पेड़ पर बैठे देखते कि उनके बच्चे कैसे उड़ना सीखते हैं,तब बाबूजी तुम कहते कि विपरीत परिस्थिति हो, परेशानी हो या कितना भी अकेलापन हो, ये सब एक नई उड़ान का पाठ पढ़ाते हैं। ऐसे समय समय के साथ नई उड़ानों में बाबूजी तुम मेरे साथ होते थे।समय पंख लगाकर उड़ता रहा और मैंने कालेज में दाखिला ले लिया…तब खबरें आतीं…
बाबूजी चिड़चिड़े हो गये हैं, बात बात में पापा -मम्मी से झगड़ते रहते हैं और पापा -मम्मी ने बाबूजी को वृद्धाश्रम भेज दिया है। घर की आया ने फोन पर बताया कि बाबूजी वृद्धाश्रम नहीं जाना चाहते थे पर मम्मी ने जबरदस्ती लड़ झगड़ कर उन्हें वहां भेज दिया और उनकी श्वेत श्याम तस्वीर घर के पीछे बाथरूम की तरफ जाने वाले गलियारे में लगा दी गई है।
आजीविका के चक्कर और बड़ा आदमी बनने की मृगतृष्णा में हम परिवार से दूर बड़े शहरों में अकेलेपन की पीड़ा झेलते हुए टूटते परिवार की तस्वीरों को देखते हुए खामोश जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं, तभी तो बाबूजी के बारे में मैंने पापा -मम्मी से कभी भी चर्चा नहीं की। उनके वृद्धाश्रम भेजे जाने पर मैं हमेशा चुप रहता आया।
जिंदगी सिर्फ मौज मस्ती और खुशी नहीं है इसमें दुःख और मायूसी भी है। इसमें ऐसी घटनाएं भी हो जातीं हैं जो कभी सोची न गई हों, की बार सब कुछ उलट -पलट हो जाता है और ऐसा ही कुछ घर की आया के फोन से मालुम हुआ कि पापा आजकल देर रात से घर पहुंचते हैं, मम्मी और पापा की अक्सर झड़पें होती रहती हैं, कभी कभी शराब के नशे में घर लौटते हैं, कुछ अनमने से रहते हैं। दौरे का बहाना बनाकर किसी महिला मित्र के साथ बाहर चले जाते हैं, मम्मी का ब्लड प्रेशर आजकल बढ़ता ही रहता है और वे भी डाक्टर के चक्कर लगातीं रहतीं हैं। पापा और मम्मी में बहुत कम बात होती है।अब घर में मेलजोल का वैसा माहौल नहीं है जैसा बाबूजी के घर में रहने से बना रहता था। मम्मी बाबूजी से मिलने वृद्धाश्रम कभी नहीं जातीं। पापा महीने में एक बार बाबूजी से मिलने जाते हैं पर दुखी मन से गेट से तुरंत लौट आते हैं। फोन पर आया की बातों को सुनकर मैं परेशान हो जाता… बाबूजी क्यों घर छोड़कर चले गए? जीवन भर तो उन्होंने सबका भला किया। पापा को सभी सुविधाओं देकर पढ़ा लिखा कर बड़ा अफसर बनाया, खुद भूखे रहकर पापा को भरपूर सुख सुविधाएं दीं।
जिंदगी के बारे में तो ऐसा सुना है कि जिंदगी में हमें वही वापस मिलता है जो हम दूसरों को देते हैं, तो फिर बाबूजी को वह सब क्यों वापस नहीं मिला। मुझे लगता है जीवन में खुशी एक तितली की तरह होती है जिसके पीछे आप जितना दौड़ते हैं वह आगे उड़ती ही जाती है और हाथ नहीं आती है। मैं अपने आप को समझाता हूं… बड़ी नौकरी मिलने पर बाबूजी को अपने पास इस बड़े शहर में ले आऊंगा, फिर उन्हें इतनी खुशी और सुख दूंगा कि उनका बुढ़ापा हरदम हंसी खुशी और आराम से कट जाएगा।इस संसार में अच्छे से जीने के लिए विश्वास, प्यार और मेलजोल की जरूरत होती है।घर से मेरे आने के बाद पापा -मम्मी और बाबूजी के बीच ऐसा क्या घटित हो गया कि विश्वास, प्यार मेलजोल सब कुछ टूटकर बिखर गया।
इधर कुछ दिनों से मेरे अकेलेपन के बीच नेहा की दस्तक बढ़ गई है, उससे दिनोदिन लगाव बढ़ता जा रहा है। अक्सर हम लोग मौज-मस्ती करने कभी गार्डन, कभी सिनेमा हॉल जाने लगे हैं। कभी पार्टियों में नाच गाना चलता है तो कभी पूर्ण समर्पण के साथ नेहा मुझ पर न्यौछावर हो जाती है…. नयी बात अभी ये हुई है कि मुझे एक मल्टीनेशनल कंपनी में बड़ा पद मिल गया है, खुशी और उत्साह से नेहा मेरा हाथ थामे एक बार बाबूजी से मिलने आतुर है…
मैंने तय किया कि नेहा को लेकर बाबूजी के चरणों में अपना सर रख दूंगा और फिर कहूंगा… बाबूजी तुम जीत गए।
मैं एक बड़ा आदमी बन गया हूं। एक मल्टीनेशनल कंपनी में जनरल मैनेजर का पद संभाल लिया है… और आज हम ट्रेन से अपने घर जाने के लिए रवाना हो गए हैं। स्टेशन से उतरकर घर जाने के लिए टैक्सी से चल पड़े हैं, अचानक बाबूजी तुम याद आ गये, मैंने टैक्सी ड्राइवर को पहले वृद्धाश्रम चलने को कहा, टैक्सी वृद्धाश्रम की तरफ दौड़ने लगी है, वृद्धाश्रम के गेट पर रुककर मैंने नेहा का हाथ पकड़कर टैक्सी से उतारा और पूछताछ काउंटर पर बाबूजी के बारे में पूछताछ की। केयरटेकर हमें बाबूजी की खोली की तरफ लेकर चला। एक टूटी सी खटिया में भिनभिनाती मक्खियों के बीच बाबूजी लेटे हुए थे, शरीर टूट सा गया था, दाढ़ी बहुत बढ़ चुकी थी,गाल पिचके, आंखें घुसी हुई हड्डियों के कंकाल में तब्दील बाबूजी पहचान में नहीं आ रहे हैं। बाबूजी ने आंखें खोली। मेरी उपलब्धियों को सुनकर उनके बेजान चेहरे पर हल्की सी मुस्कान झिलमिलाई और अचानक हताशा में बदल गई..
बाबूजी ने हाथ उठाकर नेहा और मुझे आशीर्वाद दिया और तकिए के नीचे से कुछ पैसे निकाल कर मेरे हाथ पर रखते हुए बेजान आवाज में बोले – ‘बेटा मेरा एक छोटा सा काम कर देना, कफन के लिए सस्ता सा कपड़ा ख़रीद कर ले आना ‘
वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था और बाबूजी ने हमेशा के लिए अपनी आंखें मूंद ली थीं….
मैं अपने मोबाइल से पापा -मम्मी को फोन लगा रहा था,उधर से लगातार आवाजें आ रहीं थीं “आऊट ऑफ कवरेज एरिया”….. आउट ऑफ कवरेज एरिया…..।
© जय प्रकाश पाण्डेय
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
निःशब्द हूँ. हृदयस्पर्शी तथा विचारणीय रचना
भाई , बहुत ही दिल को छू लेने वाली रचना, बधाई