श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है “सन्तोष के नीति दोहे”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 144 ☆
☆ सन्तोष के नीति दोहे – 2 ☆ श्री संतोष नेमा ☆
असली धन वन-संपदा, इसे न जाना भूल
बचा रहे पर्यावरण, यह जीवन का मूल
महँगाई के नाम पर, रोता आज समाज
पर सबसे महँगा हुआ, भाई-चारा आज
सदा हमारे लिए ही, सैनिक हों कुर्बान
किंतु धर्म के नाम पर, लड़ते हम नादान
हृदय रखें गर शुद्ध हम, कर्म करें गर नेक
बाधाएँ भी हार कर, घुटने देतीं टेक
जिह्वा पर काबू रखें, यही बिगाड़े पेट
बढ़ते दौर विवाद के, देती है अलसेट
तन-मन करती खोखला, ताड़ी और शराब
बिखर रहे परिवार भी, होती साख खराब
धन-मन काला मत रखें, कभी न जिसका मोल
सच्चाई होती सदा, जीवन में अनमोल
मन वृंदावन-सा रखें, तन काशी का घाट
रखिये मंदिर सा हृदय, मन के खोल कपाट
बड़े बड़प्पन ना रखें, रखे न सागर नीर
उससे लघुता ही भली, रखे हृदय में पीर
करते रहिए कोशिशें, गर चाहें परिणाम
स्वप्न देखने से महज, कभी न बनते काम
जिस घर में होता नहीं, वृद्धों का सम्मान
उस घर में होता सदा, खुशियों का अवसान
कच्चा धागा प्रेम का, इस पर दें मत जोर
रिश्ते सभी संभालिये, रखें खींच कर डोर
आगे बढ़ता देख कर, होते दुखी अपार
होता कलियुग में यही, पर सुख में दुख यार
कामी, क्रोधी, लालची, देते हैं उपदेश
करें साधु बन कर ठगी, रोज बदलकर भेष
बँधी रहे मुट्ठी अगर, ताकत देती खूब
राख बने मुट्ठी खुली, साख जाय सब डूब
दया, क्षमा अरु शीलता, यही धर्म का सार
सर्वश्रेष्ठ “संतोष” धन, इस पर करें विचार
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
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